मेरी कहानियाँ

मेरी कहानियाँ
आर्टिस्ट -सुधा भार्गव ,बिना आर्टिस्ट से पूछे इस चित्र का उपयोग अकानून है।

शुक्रवार, 21 अगस्त 2020

कहानी -अनोखी परंपरा

 


अनोखी परंपरा

सुधा भार्गव

    पति के सेवानिवृत होने के बाद रुकमनी ने बड़े शौक से विशाल बंगला बनवाया । साथ मैं बहू बेटे रहते थे। रिश्तों में आनंदधारा अविरल बहती थी। मुश्किल से 4-5 वर्ष ही उसने इस भवन मेँ बिताए होंगे कि पति की हृदयगति रुक गयी। वे इस संसार से विदा हो गए। वह रोती कलपती रही पर विधाता के कठोर नियम के आगे तो सिर झुके रहते हैं। उसे बैराग्य सा हो गया। बहू बेटे के जिम्मे घर गृहस्थी छोड़कर उसने गाँव मेँ बसने का इरादा कर लिया।

    गाँव मेँ उसके वृद्ध सास –ससुर रहते थे । बेटे के गम मेँ वे जीते जी मृतक समान हो गए थे । उसने उनके लिए शक्ति पुंज बनने का निश्चय कर लिया।

    बेटे ने बहुत समझाया –माँ,तुम शहर की   सुख सुविधा की आदी हो। गाँव के कष्टमय जीवन की झटकी झेल न पाओगी।

     उसका एक ही उत्तर था –जब तेरे पिता जी के माँ –बाप देहात मेँ रह सकते हैं तो तेरी माँ भी वहाँ रह लेगी। वे बड़े शौक से मुझे अपने घर में ब्याह  कर लाए थे । आज उन्हें मेरी जरूरत है । बेटे के पास कहने के लिए कुछ न था । उसे माँ की बात उचित ही प्रतीत हुई ।

     सास –ससुर के बुढ़ापे की लाठी बनकर रुकमनी गाँव के छोटे से मगर पक्के मकान मेँ रहने लगी । वृद्ध दंपति अपने व्यथित हृदय उसके सामने उड़ेलकर संतोष कर लेते । कभी अपने दुर्भाग्य पर आँसू बहाते,कभी अतीत की यादों मेँ खोकर मुस्कुरा देते । बेटे की मौत का रक्तरंजित खंजर उनके हृदय मेँ घुस चुका था । उसकी अथाह वेदना ने उन्हें गूंगा सा कर दिया था । माँ –बाप के जीते जी उनकी बेटा चला जाए इससे बढ़कर दुख और क्या हो सकता है। देखते ही देखते उनकी आँखों का तारा दूर गगन मेँ न जाने कहाँ छिप गया । अंदर ही अंदर वे घुलने लगे और एक दिन उनका पार्थिव शरीर भी मिट्टी मेँ मिल गया।

    अकेली पड़ जाने के कारण रुकमनी को पुन: शहर जाना पड़ा । पिछले दिनों उसके बेटे ने अच्छी ख़ासी तरक्की कर ली थी। बहू उसका पूरा फायदा उठा रही थी ।अधिक आराम और बेफिक्री की ज़िंदगी के कारण उसे अनेकों रोगों ने घेर लिया । जोड़ों के दर्द के कारण  उठना –बैठना भी तकलीफदेह था । 

    बेटा आफिस से आकर चहकता –माँ मेरे पास आकर बैठो ,अरे वैशाली ,हमारे लिए चाय बना दो और हाँ !सूजी के चीले बन जाएँ तो अच्छा है ।

       रुकमानी बहू की मदद के लिए उठना चाहकर भी न उठ पाती –अरे माँ कहाँ चलीं ?बबलू हाथ पकड़कर बैठा लेता । उसके दिमाग में एक ही बात छाई थी कि दादा –दादी के लिए  माँ ने अपना सुख छोड़ दिया अब वैशाली की बारी है।  वह सासु माँ का पूरा  –पूरा ध्यान रखे में दो –दो नौकर के होते हुए भी वैशाली को उनसे व्यवस्थित रूप से काम लेना नहीं आता था। वह सारा काम उनपर छोड़ कर सैर  सपाटे ,फोन करने में व्यस्त हो जाती । दिमाग झूठी शान का भँवरा हो गया था । अपने हाथ से एक गिलास पानी देने भी अपनी तौहीन समझती । उसकी दृष्टि से ट्रे लेकर किसी के सामने चाय –नाश्ता आदि पेश करना नौकरों का काम था । लेकिन पति के सामने उसकी एक न चलती ।

     पिछले दो दिनों से रुकमनी को बुखार था । लापरवाही से तिल का ताड़ बन गया और उसने  खटिया पकड़ ली । सद्व्यवहार के कारण रुकमनी की पड़ोसिनों से खूब बनती थी । उसकी बीमारी की खबर मिलते ही शुभ चिंतकों का तांता लग गया । दरवाजा खोलते –खोलते और चाय-पानी की पूछते –पूछते वैशाली की तो कमर ही दुखने लगी । उसके दोनों बेटे बाहर नैनीताल में पढ़ रहे थे,मियां –बीबी अकेले । चाहे जब घूमो ,चाहे जहां जाओ और टी॰ वी ॰ देखते –देखते सो जाओ ! आजादी ही आजादी !सास के आने से उसकी दिनचर्या में बाधा पड़ गई और वह बौखला गई।

      उस दिन वैशाली के पैरों में बड़ा दर्द था। अकस्मात दरवाजे की घंटी बजी। लंगड़ाते हुए उसने दरवाजा खोला

   अरे मौसी जी आप ,आइये—आइये। “  

   “कैसी है बहन रुकमनी ?”

   पहले से ठीक है “

  “तुम्हारा स्वास्थ्य कैसा है?”

   “मेरी तबियत का ही तो रोना है मौसी जी । इधर  अम्मा जी भी बीमार !मैं अपना तो कुछ कर नहीं पाती ,उनका कैसे करूं --!हाय राम----बड़ा दर्द है पिडलियों में सूजन भी आ गई है।“

   “वैशाली कुछ ज्यादा ही नाटक कर रही थी ,मौसी जी एक नजर में भाँप गई और बेरुखी से रुकमनी के कमरे की तरफ मुड़ गई।“

    शाम को खाना परोसते हुए वैशाली का रोज टेप रिकार्डर चालू हो जाता। नमक –मिर्च लगाकर पूर दिन की बातें बबलू के सामने उगल देना चाहती थी। बबलू उसका पति एक अच्छे श्रोता की तरह केवल हाँ –हूँ करता रहता । आज भी कुछ ऐसा ही हुआ।“

   “सुनते हो –हमारे पड़ोस मे जो  शर्मा जी रहते हैं उनकी पत्नी भी डॉक्टर है---बड़े भलमानस हैं। दोनों ही क्लीनिक जाते हैं ,लेकिन पीछे से उनकी बीमार माँ की देखभाल नहीं हो पाती ।“

     मन में तो बबली के आया कह दे –ऐसे डॉक्टर होने से क्या फायदा जो जग को तो ठीक करता फिरे और अपनी माँ के प्रति इतनी उदासीनता!जो माँ का न हो सका ,दूसरे का क्या भला करेगा। । यूं कहो –पैसे के पीछे दोनों भाग रहे हैं। पर अपनी आदत के मुताबिक केवल हूँ करके रह गया ।

      वैशाली ने फिर अपनी बात आगे बढ़ाई-“उन्होंने अपनी माँ को वृद्धाश्रम में छोड़ दिया है । हर माह वहाँ 2000हजार रुपए देते हैं । वे अपनी उम्र वालों के साथ रहकर बड़ी खुश हैं । शर्मा दंपति हफ्ते में एक बार उनसे मिल आते हैं।“  

    “तुम कहना क्या चाहती हो ?साफ –साफ बोलो।“

    “यही की अम्मा जी को भी वृद्धाश्रम में छोड़ दें तो कैसा रहेगा ?अब देखो न ,मुझसे तो अपना कुछ होता नहीं इनको क्या आराम दूँ । हम तो 2000 से भी ज्यादा इनके खर्चे को दे सकते हैं। ये भी खुश और हम भी खुश ।“

    “ओह ,अब मैं समझा। मेरी माँ तुम्हें गाए-बकरी लगने लगी है और तुम चाहती हो कि उसे जंगल में छोड़ दिया जाए। जहां वह रूखा –सूखा खाकर दिन गुजारे। मेरे याद में तड़पे तो उसकी चीख मेरे कानों से न टकराए। तुमको स्वछंद जीवन जीने की चाहत है । पति होने के नाते मुझे अपनी ज़िम्मेदारी मालूम है । अब उसे तो  निबाहना ही पड़ेगा।

   मैं माँ के नाम से वृद्धाश्रम में एक कमरा ही बनवा देता हूँ जो हमेशा हमारे परिवार के काम आएगा । कोई न कोई उसमें रहेगा ही । माँ के बाद मैं -तुम।मेरे –तुम्हारे बाद हमारे बहू –बेटे ---उसके बाद ---। घर की बहू होने के नाते जब तुम एक नई रीति को जन्म दे रही हो तो आगे की पीढ़ी को भी उसका अनुकरण तो करना ही पड़ेगा । चलो एक अलबेली परंपरा का जन्म ही सही ।“

     बबलू के संवाद चौकाने वाले थे । मानवीय मूल्यों को भुला देने वाली वैशाली ने कभी न सोचा था कि उसका फेंका पासा उसके पाले में ही आन पड़ेगा। उसे अपने कदम पीछे हटाने पड़े और फिर कभी वृदधाश्रम  का नाम अपनी जबान पर न लाई।“  

(प्रकाशित -सेवा समर्पण –मार्च 2006)

 

 

सोमवार, 20 जुलाई 2020

पूछो तो सच11


नीला आकाश 
सुधा भार्गव 
    भारतीय संस्कृति और परम्पराएं अपने में बड़ी अनोखी हैं।माँ -बाप जब तक सशक्त रहते हैं बच्चों की सहायता करने की कोशिश  करते हैं।  दिन शुरू होता है तो उनकी बातों से और रात  ख़तम होती है तो उनकी यादों में।  जब यही बच्चे सशक्त हो जाते हैं तो अशक्त माँ-बाप के मजबूत कंधे बन जाते हैं। कोरोना के समय भी यही हो रहा है।  घर -घर बुजुर्गों का ध्यान रखा जा रहा है या जो ध्यान नहीं रखते थे वे सीख रहे हैं।  दुनिया वाले इसे नहीं समझ पाते। 
    न जाने क्यों आज मुझे उस कनेडियन नर्स की याद आ रही है जो वर्षों पहले कनाडा में शाम को घर पर  पोती को देखने स्वास्थ्य विभाग से आई थी। मैं उन दिनों ओटवा में ही थी। उसने हमारे घर आये नवजात शिशु की जांच की। नए बने माँ-बाप माँ-बाप को पालन पोषण सम्बन्धी तथ्य बताये। दो घंटे तक समस्यायों का समाधान करती रही मैं इस व्यवस्था को देख बहुत संतुष्ट हुई पर मुझे एक बात बहुत बुरी लगी
नर्स ने पूछा-घर मेँ कोई सहायता करने वाला है?
"हाँ,मेरे सास-ससुर भारत से आए है।" बहू बोली।
"कब तक रहेंगे?"
"3-4 माह तक।"
"क्या वे तुम्हारी वास्तव मेँ सहायता करते हैं?"
"सच मेँ करते हैं।"
"पूरे विश्वास से कह रही हो?"
"इसमें कोई शक की बात ही नहीं है।"
"ठीक है,तब भी शरीर से कम और दिमाग से ज्यादा काम लो।"
   नर्स शंकित हृदय से  मुझसे बहुत देर तक कुछ  जानने की कोशिश करती रही पर कंकड़-पत्थरों  के अलावा उसके कुछ हाथ न लगा।   
    न जाने ये पश्चिमवासी सास –बहू के रिश्ते को तनावपूर्ण क्यों समझते हैं?जिस माँ की बदौलत मैंने प्यारी सी पोती पाई उसे क्यों न दिल दूँगी। इसके अलावा माँ सबको प्यारी होती है। बड़ी होने पर जब मेरी पोती  देखेगी कि मैं उसकी माँ को कितना चाहती हूँ तो वह खुद मुझे प्यार करने लगेगी।   दादी अम्मा कहकर जब वह मेरी बाहों मेँ समाएगी तो खुशियों का असीमित सागर मेरे सीने मेँ लहरा उठेगा। शायद उस नर्स ने कभी नीला आकाश देखा ही न था  । शायद कोरोना का यह  वीभत्स तांडव नृत्य उनके पारिवारिक जीवन में मिठास पैदा कर दे। 

शनिवार, 18 जुलाई 2020

पूछो तो सच -10


हमारा लीडर
सुधा भार्गव

मित्रों आज घर में बैठे बैठे मुझे अपने लीडर की याद आ गई ।बात उन दिनों की है जब
मैं बी. ए. की छात्रा टीकाराम गर्ल्स कॉलेज अलीगढ़ के छात्रावास में रहकर पढ़ा करती थी । छात्रावास कालिज की तीसरी मंजिल पर था । एक कमरे में चार -चार लड़कियाँ रहती थीं । कमरा काफी बड़ा था इसलिए कोई असुविधा नहीं थी । लेकिन एक रात हमारे लिए डरावने -डरावने सपने लेकर आई । लगा कमरे से बाहर कोई चहलकदमी कर रहा है ,फुसफुसा रहा है। ख्यालों की खिचड़ी पकने लगी -एक नहीं दो नहीं,तीन -चार चोर तो जरूर होंगे जो हमें लूटने की फिराक में हैं । दिसंबर का महीना --चिल्लाएँगे तो कानों तक आवाज भी नहीं पहुंचेगी ,सिर तक लिहाफ ओढ़े वार्डन और टीचर्स खर्राटे ले रही होंगी ।
हमने कमरे की चारों ट्यूवलाइट जला दीं और ज़ोर -ज़ोर से बातें करके चोरों के दिमाग में यह बात बैठानी चाही कि जाग पड़ गई है सो वे भाग जाएँ ।हम भी पौ फटने का इंतजार करने लगे । उजाला होते ही खिड़कियाँ खोलकर बाहर की ओर झाँकने लगे । खाना बनाने वाले महाराज को ऊपर आता देख सांस में सांस आई और कमरे का दरवाजा खोल दिया । उन्हें घेरकर हम बोले-”महाराज --महाराज रात में चोर आए थे ।”
इतने में वार्डन आ गई । खिल्ली उड़ाते हुये बोली -“उनकी आँखों में लाल मिर्च क्यों नहीं झोंक दीं ।”
“बहन जी क्या बात करती हैं । चोर क्या आकर कहेंगे -लो हमारी आँखों में मिर्च भर दो ।” महाराज खीज उठा ।
हम लड़कियां तो अवाक सी वार्डन की ओर देखती ही रह गईं । यह बात प्रिंसपाल के कानों तक भी पहुँची। तीन -चार लोगों की जांच समिति आई और चौकीदारों को अधिक सजग रहने का आदेश दे दिया गया । एक बात हम समझ गए थे कि अपनी लड़ाई हमें खुद लड़नी होगी ।
हमने वास्तव में ही रसोईया महाराज से पिसी लाल मिर्च लेकर मिर्चदानी में भर ली । उसको एक थैले में डालकर फल काटने का चाकू भी रख दिया । निश्चय किया इस थैले को कंधे पर लटकाकर बारी -बारी से लड़कियां पहरा देंगी । छात्रावास का नियम था कि रात को ग्यारह बजे लाइट्स बंद करके सोना पड़ता था । लेकिन उस दिन तो बारह बज गए और बिजली जल रही थी । परेशान सी वार्डन आई और पूछा --
“लड़कियों यह चहल -पहल कैसी ---और यह झोला कंधे पर क्यों ?इसमें क्या भर रखा है ?”एक ही साँस में इतने प्रश्न !वह बौखलाई सी थी ।
सहपाठिन क्षमा बोली -“मैडम ,यदि आज रात चोर आ गए तो हमारे सामने दो ही रास्ते होंगे --आत्मरक्षा या आत्महत्या । आत्मसमर्पण करने से तो रहे ।”
“लेकिन इस थैले मेँ क्या है ?”सब्र का बांध टूटा जा रहा था ।
“आत्मरक्षा का समाधान!”
क्षमा ने अपने कंधे से थैला उतारा । उसमें से मिर्च , धारवाला चाकू निकालते हुये बोली-
“अपने लक्ष्य को पाने के लिए मेरे ख्याल से ये बहुत हैं !”
साहस व आत्मविश्वास से भरी बातों को सुनकर वार्डन चकित थी । साथ ही क्षमा जैसी दु:साहसी लड़की को देख दहशत से भर उठीं कि अनजाने में यह लड़की कोई गुल न खिला दे। हमारी तो वह लीडर हो गई। पर वह लीडर आज की लीडर नहीं । न तो कोरोना को भगा सकती है और न पिंजरे में बंद हम जैसे पंछियों को मुक्त करा सकती है।
यह कैसी मजबूरी है !

पूछो तो सच-6




जन्म -8मार्च,2017
     
    आज मैंने ज़िंदगी के 75 वर्ष पूरे कर लिए हैं। बड़ी  सुबह ही  क्लिक -क्लिक की आवाज से नींद टूट गई। शुभकामनाओं का तांता लगा हुआ था। किसी की आवाज सुनाई दी तो किसी के शब्द दिखाई दिए। कुछ ने फेस बुक पर लंबी उम्र और  खुशहाल जीवन की कामना करते हुए उसकी वॉल पर वाक्य चिपका दिए।
     सब एक ही बात पूछते थे –आज किस तरह से अपना जन्मदिन मना रही हो?मेरा एक ही जबाब होता-बिना बच्चों के क्या जन्मदिन। दो तो बाहर ही हैं। जब एक साथ इखट्टे होंगे तभी कुछ होगा।
   बेटी का फोन आया –“माँ हैपी बर्थडे । शाम को क्या कर रही हो?”
   “करना क्या है!शाम को रोजाना की तरह सोनू के यहाँ  खाना खाने जाऊँगी। हाँ शाम को  जरूर अपने मित्रों को मिठाई खिलाऊंगी। तुम्हारी भाभी  से 15 मित्रों के लिए मिठाई लाने को कह देती हूँ। वह बाजार गई हुई है।”
   बहू  को फोन खटखटाया –“तुम कहाँ हो?कब तक आओगी?”
   “मुझे आने में देर लगेगी। बच्चे भी साथ है। कोई बात है क्या?”
   “मुझे अपने दोस्तों के लिए मिठाई चाहिए। सड़क पर इतनी भीड़ है कि उसे पार करने में ही पसीना आने लगता है। तुम लौटते समय ले आना। पाँच बजे तक मैं नीचे पार्क में जाऊँगी। वहीं सब इखट्टे होंगे।”
   “मैं तब तक घर आ जाऊँगी।
   शाम के पाँच बजने पर छोटी बहू  जब लौटकर नहीं आई तो मैं बेचैन हो उठी।
   “कितनी और देर लगेगी आने में?”मैंने झुंझलाते हुए फोन पर कहा।
   “बस आ रही हूँ।
   “मैं तैयार हूँ। नीचे आ जाऊँ!”
   “नहीं –नहीं आप नीचे नहीं आइए । मैं फोन करूं तब आइएगा।”
   मुझे बड़ा अजीब सा लगा। समझ नहीं आया कि ऐसे क्या काम आन पड़े कि सुबह से शाम हो गई। बच्चे भी परेशान हो गए होंगे।
   तभी यू॰के॰ से बड़ी बहू का फोन आ गया- “मम्मी जी हैपी बर्थडे!क्या कर रही हैं?”
   “कर क्या रही हूँ!अभी तो तुम्हारी दौरानी के आने  का इंतजार कर रही हूँ। कहा था 5बजे तक कुछ मिठाई लाकर दे दो। पाँच बजे आने को कह रही थी। अब साढ़े पाँच बजने वाले हैं। मुझे मालूम होता इतनी देर लग जाएगी तो मैं ही लाने का कुछ जुगाड़  करती। मुश्किल से एक घंटे तो हम दोस्त पार्क में बैठते हैं। देर होने से आधे तो चले ही जाएँगे।अच्छा फोन बंद करती हूँ। अभी उसको ही फोन लगाती हूँ। न जाने कहाँ अटक गई?
   मैंने गुस्से में  छोटी बहू को  फोन कर ही डाला-“तुम अब न लाओ । मैं नीचे जा रही हूँ। आज उनको ड्राई फ्रूट्स खिला दूँगी। मिठाई कल हो जाएगी।”
   “अरे नहीं,दो मिनट रुकिए मैं कुछ करती हूँ।मिठाई तो आज ही शोभा देगी।”
  बहू  की आवाज में परेशानी घुली हुई थी।  मेरा गुस्सा मोम की तरह पिघल पिघल बहने लगा।
   इस बार मोबाइल फिर बज उठा। बेटे की आवाज सुन चौंक पड़ी।
   “माँ,मैं आ रहा हू। घर पर हो न।’’
   “अरे इस समय तू क्यों आ रहा है। मैं नीचे जा रही हूँ। घूमने का समय हो गया है।”
  “नीचे तो रोज ही जाती रहती हो ---आज रहने दो।
   “अच्छा आजा। मैंने सोचा ,बिना बहू  और बच्चों के घर में उकता गया होगा।   
   बेटा आया। बोला-“माँ कैसी हो?”
   “ठीक हूँ। न जाने तेरी बहू  कहाँ रह गई। मैंने बुझे मन से कहा।
   “अभी आती होगी। इतने मेरे घर चलो।”
   “क्यों! वहाँ क्यों चलूँ?”
   “माँ,आप घर में पेंट करवाने की कह रही थीं। पेंटिंग  वाला आ रहा है। उससे कुछ बातें करनी हैं। रंग भी पसंद कर लो।”
 -मैं क्या रंग पसंद करूँ!तू ही कर ले।वही हो जाएगा।
 -ओह माँ चलो तो। दो मिनट ही तो लगेंगे।
 -अच्छा चल।
  मैं बेटे के घर की तरफ चल दी जो मुश्किल से 10 कदम की दूरी पर था । बड़े प्यार से वह मेरा हाथ थामें हुआ था।रास्ते भर खिचड़ी पकाती रही- 75 वर्ष की हो गई तो क्या हुआ!बुढ़ापा मुझसे कोसों दूर हैं। आ भी  गया तो क्या हुआ! मेरा क्या बिगाड़ लेगा –मैं तो बेटे के हाथों पूरी तरह सुरक्षित  हूँ।
    उसने अपना दरवाजा खटखटाया। दरवाजे के खुलते  ही अवाक रह गई। मेरी  करीब 20-25 सहेलियाँ बैठी हुई थीं।  मित्र तापसी बंगाली में जन्मदिन का गीत गा रही थी।सब तन्मय हो उसमें खोये हुए थे। 


   पास ही बहू  का बनाया केक मेज पर मुस्कुरा रहा था। सबके प्यार को देख मेरा हृदय भर आया।गाना समाप्त होते ही हैपी बर्थडे से घर गूंज उठा। लगा सबको एक साथ गले लगा लूँ। दिल में तो वे पहले ही बस चुके थे। इसके बाद का हाल तो फोटुयेँ ही बयान कर देंगी।






   इस  सरप्राइज़ पार्टी की तो मैं कल्पना ही नहीं कर सकती थी। इसका प्रबंध बच्चों और मित्रों ने इस प्रकार किया कि जिसका जन्मदिन था उसी को पता नहीं।असल में बहू घर से बाहर कहीं नहीं गई थी । उसने बाहर जाने का बहाना किया था ताकि मैं उसके फ्लैट में न पहुँच सकूं और चुपचाप  वह पार्टी की तैयारी कर सके ।  दोनों पोतियों ने भी भाग -भागकर खूब काम किया। मेहमानों से बार -बार खाने  की पूछती और जब नन्हें हाथों से उनकी प्लेट में कोई व्यंजन परोसती तो खाने का स्वाद दुगुन हो जाता। मेहमानों को देने वाले बैक गिफ्ट की पैकिंग और सज्जा इन दोनों ने ही की थी। और तो और बड़ी पोती ने तो सबके बीच कालीन  पर बैठकर गिटार पर हैपी बर्थडे की बड़ी प्यारी धुन सुनाई। तीन पीढ़ियों का संगम देखते ही बनता था। 
   आज सबसे बड़ा प्रश्न है कि नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के मध्य बढ़ती खाई को कैसे पाटा जाय?इसके बारे में बहुत कुछ लिखा जा रहा है। मगर ज़्यादातर लोग युवा पीढ़ी से बड़े निराश है। उनके प्रति नकारात्मक सोच की दीवारें इतनी मजबूत हैं कि सकारात्मक सोच वहाँ पनपने ही नहीं पाती। किसी निर्णय पर पहुँचने से पहले समस्या की जड़ों तक जाना जरूरी है। कभी कभी जो दिखाई देता है वह वैसा होता नहीं। यदि लेखनी द्वारा ऐसा साहित्य परोसा जाय जो  बुजुर्ग  और नई पीढ़ी के मध्य की खाई को भर सकने में सहायक हो तो बहुत ही अच्छा है। 


शुक्रवार, 17 जुलाई 2020

पूछो तो सच-1


एक ड्रेस की दुल्हनिया 

सुधा भार्गव   
   शादी तो मैंने अपने बच्चों की भी की और अनेक शादियाँ देखने को मिलीं पर  उस जैसी शादी नहीं देखी।
   न मिठाइयों के पैकिट न उपहारों की भीड़। न तिलक के नाम नोटों से भरे लिफाफों  की बौछार न लड़के की घड़ी-सूट-चेन । सगाई की रस्म बड़े शानदार होटल में की गई थी। मगर लड़की के माँ-बाप ऐसे घूम रहे थे जैसे किसी दूसरे रिश्तेदार की सगाई में  आए हैं। उनकी तरफ के लोग सगाई के अवसर पर करने वाले तिलक के लिफाफे हाथ में  लिए हुए थे। लड़की की माँ ने टोका-“ये लिफाफे अंदर रख लीजिये। लड़के वालों ने कुछ भी लेने से इंकार कर दिया है। लड़के का सपना था  कि वह केवल एक ड्रेस में  अपनी दुलहनिया लाएगा। ”
   जिसने भी सुना अचंभित !पैसे के लालच से निकलना आसान नहीं। मैं असमंजस में थी—सगाई पर अगर लड़के के माता –पिता लड़की के लिए साड़ी - जेवर लाये, साथ में मेवा-मिठाई ----- लड़की वाले कुछ न दें तो बड़ी किरकिरी होगी।
    मैं लड़की वालों की तरफ से थी। हम सब होटल में आ चुके थे। लड़के वालों का इंतजार था। वे दूसरे शहर से आने वाले थे। सबकी आँखें दरवाजे पर लगी थीं। वे इसी होटल में रुके मगर अपने रहने -सहने का इंतजाम उन्होंने खुद किया ।  सगाई में सबके खान पान का खर्चा भी उनकी तरफ से था।
  जो भी देखा अविश्वसनीय । वे बस 10 लोग थे। कोई चमक-दमक ,ठसके बाजी नहीं। न साथ में भारी अटैचियाँ  और डिब्बे। तभी लड़की ने साधारण   वेषभूषा में अपनी भाभी के साथ हॉल में प्रवेश किया।  मंच पर लड़के –लड़की ने एक दूसरे को अंगूठी पहना दी  वह भी अपनी अपनी कमाई की। फिर नाच-गाने व शायरी  के प्रोग्राम अति व्यवस्थित रूप से हुए। जो उनके मित्रों ने संयोजित किए थे।
    हम आशा करते रहे , रोके की रस्म  में अब लड़के की माँ अपनी होने वाली वधू को साड़ी -जेवर पहनाए ---अब पहनाए मगर वह क्षण नहीं आया तो नहीं। एक बुजुर्ग महिला बेचैन हो उठी और उसने समधिन जी से पूछ ही लिया –“बहन जी रोके की रस्म कब करेंगी ?हम लोगों में तो रोका होता है। जिसमें ससुराल की तरफ से सौभाग्य सौगातें दी जाती हैं।”
     “अगर हम देने का सिलसिला शुरू कर दें तो लड़की वाले भी शुरू कर देंगे। हम इस लेनदेन के खिलाफ हैं। रही बहू को देने की बात तो उसे हम क्या दें! वह  हमारी हो गई है ,फिर तो हमारा सब कुछ उसी का है। फिर  मेरा बेटा भी तो अपनी दुलहनिया को एक ड्रेस में ले जाना चाहता है।”
बात खरी थी । सब अपने गिरहबान में झाँककर देखने लगे कौन कितना खरा है। चाहते हुये भी लोग परम्पराओं और रीति-रिवाजों का विरोध करने में अपने को असमर्थ पा रहे थे।
अगले दिन विवाह समारोह था। उस दिन होटल के खाने –पीने का प्रबंध लड़की वालों की तरफ से था। बारात आई ,उसका स्वागत हृदय से किया। परंपरा के अनुसार लड़की के पिता ने बड़ी नम्रता से अपने समधिन जी से कहा-आप हमारे मेहमान हैं। हमारी ओर से आपके खास मेहमानों के लिए कुछ उपहार हैं। वे आपको दे दें  या उन्हीं को दें।
   समधी जी बिफर पड़े-“किस बात के उपहार !ये सब लड़की वालों को लूटने की बातें हैं। आप बताइये ,हमारे पास किसी  बात की कमी है क्या जो आपसे लें? मेरे बेटे-बहू दोनों ही योग्यता में  समान हैं ,सामर्थ्यवान हैं । उन्होंने एक दूसरे को पसंद किया है फिर हम उनके चक्कर में  क्यों पड़ें!” वे अपनी बात कहते हुये बड़ी सहजता से हंस दिये। समधी-समधी पुलकित हो गले लग गए। देखने वाले कह उठे- हमारे समाज में यह एक अनूठी मिसाल है।
13:1:2019
बैंगलोर          मित्रों मेरे जीवन का एक सच पढ़िए 





बुधवार, 24 जून 2020

पूछो तो सच 2-सृजन की मौत



   2-सृजन की मौत 
    
   सुधा भार्गव  
                                     
     बेटे ने फ्लॅट खरीदा और बड़े शौक से उसमें परिवर्तन कराने लगा।रसोई  का दरवाजा आधा लकड़ी का और आधा लोहे की जाली का बना था। वह उसे पसंद न था। मुझसे बोला --माँ,जाली की जगह मैं शीशा फिट करना चाहता हूँ। उस पर आप पेंटिंग कर दो। मैं उसका मुंह देखती रही ।कैसे कहूँ यह मेरे लिए बड़ा कठिन होगा।इतनी बड़ी ग्लास पेंटिंग!  मन की बात मन में ही दबाती दो दिनों तक साहस जुटाती रही। अभी तक 1x2फुट पेंटिग्स ही बनाई थीं। लेकिन बेटे के आग्रह से मैं बीच बीच में उत्साह से भी भर जाती । आत्मविश्वास ने सिर उठाया और संदेह की दीवार गिराते हुए अंदर से  आवाज आई –मैं अवश्य बना लूँगी। जब निर्णय ले ही लिया तो प्रारम्भ करने में क्या देरी!        यही सोचकर अगले दिन बढ़ई से 3फुट लंबा और दो फुट चौड़ा मोटा शीशा लाने के लिए कह दिया। उसका नाम विजय था। इन्टरनेट और पुस्तकों की सहायता से फूलों का डिजायन पसंद करने में लग गई। जो पसंद आया उसे चार्टपेपर पर शीशे के साइज का बड़ा किया । 3-4 दिनों की लगातार मेहनत व लगन से शीशे की पेंटिंग  तैयार हो गई। अपनी विजय की खुशी का उत्सव मैं खुद ही मनाने लगी। उसकी खूबसूरती आँखों में भर लेना चाहती। काफी देर तक  टकटकी लगाए देखती। लगता सच में उनकी महक मेरे इर्द-गिर्द हवा में घुल गई  है। दिन में इठलाती और रात में पेंटिंग के फ्रेम से झाँकते -मुस्कराते फूल मेरे सपनों में आते।
     शाम को घूमकर जब मैं घर की ओर आ रही थी एक सहेली मिल गई। बोली-क्या करती रहती हो। एक दिन सत्संग में चलो ।
  “मैं तो सत्संग करती रहती हूँ।" मेरी  आँखें मुस्कराईं।
  “कहाँ ?किसके साथ?"वह तो चौंक गई। 
   मेरे घर आकर देखो। तभी तो पता चलेगा। तुम्हें भी उस सत्संग में शामिल होकर आनंद आयेगा।मेरा इशारा अपनी पेंटिंग पर था।  
    अगले दिन  मैं घर के काम में व्यस्त थी कि करीब 12  बजे  दरवाजे में दो सज्जन घुसे-हमारे श्री मान के  अंतरंग मित्र। एक को कंप्यूटर पर कुछ काम था इसलिए मेरे स्टडी रूम चले गए। बेधड़क अपनी उँगलियाँ अक्षरों पर घुमाने लगे। मैंने सुरक्षा की दृष्टि से पेंटिंग ऊंचाई पर डाइनिंग टेबल पर रख दी  थी। ताकि कोई उससे टकरा न जाय।
     ये दोनों सज्जन कुछ  चाय नाश्ता तो जरूर करेंगे।  कुर्सी पर बैठकर गप्प-शप्प भी होगी।  यह सोचकर पेंटिंग  डाइनिंग टेबिल से उठाकर मैंने अन्य  कमरे में पलंग पर रख दी । । दूसरे मित्र साहब इतने बेतकल्लुफ थे कि वे भी  मेरे स्टडी रूम की तरफ बढ़ गए। जैसे ही सज्जन पेंटिंग वाले कमरे की ओर चले मेरी  तो  सांसें रुक गई ओर अनिष्ट होने की आशंका से ग्रसित  उनके पीछे भागी। मुझमें और उसमें मुश्किल से एक फुट का फासला रहा होगा  कि  देखते ही देखते वे  शीशे की पेंटिंग पर बैठ गए। चटक -चटक -चटाक आवाज हुई और उसकी  सांसें टूट गईं।   चटक चटक की  आवाज से लगा जैसे  मेरी हड्डियां ही तोड़ दी गई हों। 
     वे तो आँखों के होते हुए भी सूरदास निकले। । कोई बच्चा तोड़ता  तो 2-3 थप्पड़ लगा कर कुछ कड़वे बोल बोलकर अपने मन की निकाल लेती--- बच्ची होती तो रो रोकर घर भर देती। पर कुछ भी तो ऐसा नहीं हुआ।
     ईश्वर ने मेरा दर्प चूर करने के लिए क्षण भर में  अच्छे -खासे आदमी को अंधा बना दिया। चादर के नीचे डनलप का गद्दा था। ।बैठने से गद्दे का संतुलन बिगड़ गया। शीशे के टुकड़े टुकड़े हो गए। । शीशे के क्या टुकड़े हुए—मेरे टुकड़े हो गए।
    सज्जन भी तड़ की आवाज से चौंक गए । उठे तो उसके टूटने का दुख तो उन्हें भी हुआ। पर सॉरी कहकर शीघ्र ही कमरे से निकल गए और ड्राइंगरूम में जाकर बातों में  खो गए। किसी को कहते सुना –छोड़ यार –दूसरी बन जाएगी। लगा जैसे गरम गरम शीशा मेरे कानों में उड़ेल दिया हो। पीड़ा से छटपटा उठी। 
 अपने को कमरे में  बंद कर लिया और घंटों मातम मनाती रही। दर्द से कराहती रही। चटके फूलों को डबडबाई आँखों से देखती रही। न जाने कितनी बार उन्हें सहलाया जिन्हें असमय मौत मिल गई थी। मन में तो आया तोड़ने वाले का गिरहवान पकड़कर नीचे फिंक दूँ मगर क्या ऐसा कर सकती थी। जब अंदर की पीड़ा असहनीय हो गई तो मोबाइल में कह उठी-"बेटा,पेंटिंग वाला  शीशा टूट  गया। सत्तू ने मेरी ग्लास पेंटिंग तोड़ दी। इसके बाद मैं कुछ कह न सकी। हिचकियों ने मेरा गला दबोच लिया।
    मुझे लगा मेरे ज़िंदगी का शीशा ही दरक गया है और उसके टुकड़े मेरे  कलेजे में  घुस गए हैं। बड़ी सहजता से कह  दिया गया –कोई बात नहीं –दूसरी बन जाएगी। अरे जन्म देने वाले से तो पूछा होता---उसके सृजन  को मौत देते समय उस पर  क्या बीती होगी। वह सदमा बर्दाश्त हुआ नहीं कि अन्य सृष्टि की उम्मीद लग गई।
    मैंने अभी ग्लास पेंटिंग को दफनाया नहीं है। बिस्तर पर अजीज की तरह लेती हुई है। उसके टूटे टुकड़ों को इस तरह रखा है ताकि उसकी विकलांगता नजर न आए।आते-जाते उस पर भरपूर निगाह डाल लेती हूँ।खंडित होने पर  भी उसके सौंदर्य में  कोई कमी नहीं आई है। वैसे ही ,पतले पतले गुलाबी होठों की तरह नन्ही-नन्ही खिलती कलियाँ ,उन पर उड़तीं लाल,नीली,पीली बैंगनी तितलियाँ।
लेकिन पेंटिंग उठकर दीवार की शोभा तो कभी न बन पाएगी। बेजान सी कब तक लेटी रहेगी।
     संहारक और दर्शक  ---सॉरी कहकर पल्ला झाड़कर अलग हो गए। मेरे शोक ,में सम्मिलित होने वाला कोई नहीं।  अकेली शोकसभा कर न पाई। जल्दी से दूसरे फ्लैट 290 में गई । विजय को अपने साथ हुए हादसे को सुनाया तो सन्न रह गया। मेरे उदास चेहरे की ओर ताकता रहा। एक कारीगर एक कलाकार के असीमित संताप की अनुभूति कर बेचैन हो उठा। उसी को तो दरवाजे के फ्रेम  में उस जीती जागती पेंटिंग को फिट करना था। कोंट्रेक्टर कमाल बोला-"कैसे टूट गई। वह तो बहुत सुंदर लग रही थी।"उसका इतना भर कहना  मेरे तप्त हृदय को कितनी  ठंडक पहुँचा गया  बता  नहीं सकती।
    बेटे को भी मैंने अपने रंजिश क्षणों का भागीदार बनाना चाहा। । अपनी बात कहते-कहते रो पड़ी । शायद वह मेरी भावनाओं को समझ गया था। बोला-माँ,ऐसे न दुखी हो!कैसे न दुखी होऊँ ! दूसरी पेंटिंग सुमनों से भरी महकती क्यारियाँ बना लूँगी पर जो गई सो गई। वह तो नहीं जी सकती। उसका अनुकल्प कैसे हो सकती है !—यह विनाशकारी हाथ क्यों नहीं समझते। लगता है मेरा शोक कभी समाप्त न होगा।
समाप्त 
1006.7.23  
  

मंगलवार, 16 जून 2020

3-कोरोना का भ्रमित मंजर

 15.6.2020  /              
 कोरोना तुम्हारे कारण हम दलदल में फंसते जा रहे हैं --तुम जाते क्यों नहीं !
        बेचारी डिग्री 
सुधा भार्गव
      कोरोना के कारण लाखों मजदूर  बेरोजगार -बेघरबार हो  गए हैं इसमें कोई शक नहीं !पर कल  दूरदर्शन में यह देखकर चकित हो गई कि इंजीनियर ,एम.ए. और ग्रेजुएट फावड़ा संभाले मिटटी खोद रहे हैं  और कुछ शिक्षित ईंटें धो रहे हैं ।    पूछने पर बोले  -हमें लोकडाउन में कहाँ काम मिलेगा !पेट भरने के लिए सोचा जो काम मिल जाये उसे ही कर लें।  ।कानों -आँखों पर विशवास न कर सकी --- शिक्षित होने पर भी ऐसी नौबत !  पर वास्तविकता कुछ और ही थी।   डिग्री मिले उन्हें कई महीने हो गए हैं।  डिग्री तो है पर उनके पास डिग्री के अनुसार योग्यता नहीं है।  सपने बहुत ऊंचे रहे होंगे --कम पैसे की नौकरी करना अपनी तौहीन समझा होगा ।  ग्रेजुएट पास युवक में तो इतनी भी योग्यता नहीं थी कि एप्लिकेशन लिख सके।  इसी बीच कोरोना की चढ़ाई  हो गई।  गाँव किस मुंह से जाते ! घर वालों ने एक एक पाई जोड़ उन्हें पढ़ाया लिखाया होगा  पर नौ  महीने से कुछ नहीं कमाया बस घरवालों को  झूठी  तसल्ली देते रहे होंगे ।  समझ नहीं आता किसे दोष दें! युवकों को या अपनी शिक्षा प्रणाली  को।
       मेरे ख्याल से उनके शिक्षण में मानवीय मूल्यों का समावेश हो जाता तो पढाई ख तम कर  लेने के बाद  किसी बड़ी कंपनी या व्यवसाय में नौकरी करके केवल पैसा कमाने की चिंता उन्हें नहीं रहती। न ही जगह -जगह भटकते महीनों गुजार देते।   वे अपने ज्ञान को मानवता की भलाई में लगाने वाले कार्य की और बड़े जोश से  कदम बढ़ा चुके होते।  आज जब हम आत्म निर्भर भारत की बात करते हैं तो इस दृष्टि से शिक्षा के हर क्षेत्र में कौशल और ज्ञान के साथ -साथ मानवीय मूल्य परक शिक्षा का होना अनिवार्य सा  लगता है।  यही एक रास्ता है कोरोना काल  के आर्थिक संकट से जूझने का. मित्रों आपकी क्या राय है इस बारे में --!  

रविवार, 14 जून 2020

पूछो तो सच 3 -

14.6.2020-kadve ghuunt
तुम जाते क्यों नहीं !
तुम्हारे कारण हमें कड़वे  घूँट पीने पड़ रहे हैं।  आखिर कब तक चलेगा यह सब !

सेनेटाइज्ड धार्मिक अनुष्ठान /सुधा भार्गव 

     पिछले साल दुर्भाग्यवश  छोटा  भाई हमें रोता  बिलखता छोड़ इस दुनिया से चला गया।  उस समय मेरा ऑपरेशन हुआ था सो अंतिम समय में मैं उसे देख  भी न सकी।   मन बहुत तड़पा , उसे किसी तरह समझाया- अब न सही उसकी बरसी में जरूर जाऊँगी।  मई २०२० में उसकी बरसी थी।  पर उससे पहले ही  कोरोना महामारी ने अपना विकराल रूप  दिखाना शुरू कर दिया ।लॉकडाउन के कारण टिकट कैंसिल करवाना पड़ा।  बहुत रोई बहुत रोई पर आंसुओं से क्या कोरोना पिघल जाता !जैसे -जैसे बरसी का दिन समीप आता जाता पंख कटे पंछी की तरह फड़फड़ाती। वाट्सएप पर सन्देश भेज नमन कर ही संतोष करती।
       ठीक बरसी  के दिन भतीजी ने  जूम का एक लिंक और पास वर्ल्ड भेजा।  जरा  सी कोशिश के बाद लैप टॉप की स्क्रीन पर वीडियो कॉफ्रेंसिंग शुरू हो गई।  पूरा परिवार बैठा नजर आया। ऐसा लगा कोसों दूर बैठे डिस्टेंसिंग का बहुत अच्छी तरह पालन किया जा रहा है।  चेहरे उदास --डबडबाती आँखों में एक ही प्रश्न  --यह किस तरह मिल रहे हैं !
     भाई के घर का नजारा शुरू हुआ --जगह -जगह हैण्ड सेनेटाइजर आँखें  मिचमिचाते इशारा कर रहे थे पहले हम से मिलो।स्वच्छ वस्त्र धारण किये  पंडित जी हवन कुंड के आगे बैठे मन्त्रों का उच्चारण कर भतीजे से आवश्यक रस्में करा रहे थे।  यह हर तरह से सेनेटाइज्ड धार्मिक अनुष्ठान था।   पंडितों को देने का सामान एक तरफ एकदम अलग रखा था।  रसोइयन व् घर का काम काज करने वाली  के न आने के कारण  भाभी व  भतीजा बहू घर के कामों में लगे थे। बीच बीच में भाभी कातर निगाहों से धार्मिक विधियां देखतीं  और छलकती आँखों से फिर रसोई में चली जाती।शायद उसे कोई काम याद आ जाता होगा।   बाद में केवल तीन पंडितों को खाते  देखा। आश्चर्य हुआ लॉकडाउन में ये कहाँ से चले आये।  पर वे पंडित भी  सेनेटाइज़्ड  थे जो अपने घर रोज नहीं जाते थे। रिश्तेदारों से  अलग रहते  ताकि खान-पान  और दान देने की प्रक्रिया निर्बाध गति से चलती रहे।वह अनोखा  अनुष्ठान दो घंटे चला। अंत में हम ठगे से रह गए।न मिलना जुलना न गले लगना न आशीर्वादों की खनक न सांत्वना के दो बोल।  दूर जाती संस्कृति को देखा  और देखते ही रहे --हिम्मत न हुई कि  उसे रोक   सकें ।     जैसे पिक्चर ख़तम होने पर उठ जाते हैं उसी प्रकार हम उठ गए --पर हमारी पिक्चर  ख़तम नहीं हुई  थी। मस्तिष्क के पटल पर   बार बार एक ही बात आ-जा रही थी  --क्या अब हमें ऐसे ही रहना होगा!
      यदि हम ऐसे ही रहने लगे तो एक दिन आएगा जब नई पीढ़ी  अपने दादा -दादी ,नाना-नानी से सुनेगी कि आजकल की तरह हमारे समय जूम नहीं चलता  था।पहले ऐसा होता था --ऐसा होता था तो अविश्वास से आँखें झपकाती बोलेगी -क्या सच में ऐसा भी होता था!

  14. 6. 2020




शनिवार, 13 जून 2020

पूछो तो सच-4


तू  न जाने कहाँ से आया ! आया तो जमकर बैठ गया।  अब यह भी जल्दी से बता दे--कब जाएगा तू। 

     यही सोचती हुई शाम को बालकनी में बैठकर नीचे झांक रही थी। बगीचे में गिनती के बच्चे नजर आ रहे थे।  २-३ युवक दौड़ लगा रहे थे. मेरा कोई बुजुर्ग साथी टहलता नजर नहीं आया।  कोरोना के कारण मेरी तरह सब घर में कैद हैं।  सुनने और देखने में यही आया है कि  कोरोना बूढ़ों को देख एकदम बाज की तरह झपट्टा मारता  है। आँखें तो नीचे ही देख  रही थीं पर दिमाग इतना चंचल कि उड़ता उड़ता २० साल पहले की दुनिया में पहुँच गया।

वह वृद्धा  

     सुबह कॉलेज जाते समय एक गली से गुजर रही हूँ । वहां  एक आलीशान तिमंजलि  इमारत है ।  उसकी दूसरी मंजिल की बालकनी में एक वृद्धा  खड़ी है जो   पैरों की शिथिलता के कारण  बाहर जाने में अशक्त है  पर दूसरों से मिलने के लिए उनसे बात करने के लिए उसमें तड़पन है । बेटा नौकरी पर जाता दिखाई दिया  और बहू घर के  कामों में व्यस्त।  सो अकेलापन उसे काटने को दौड़ पड़ा है ।  वह बालकनी से बाहर हाथ निकालकर दूसरों को बुला रही है ।
एकाएक मुझे अहसास हुआ मैं वही वृद्धा हूँ --उसी की तरह लोगों से मिलना चाहती हूँ ,बातें करना चाहती हूँ पर हूँ उससे भी ज्यादा मजबूर !  पैरों में सामर्थ्यता  होते हुए भी निडर होकर निकलने में एकदम असमर्थ।

13. 6. 2020