यह कहानी कई साल
पहले साहित्यशिल्पी अंतर्जाल पत्रिका में
छपी थी। जिसकी लिंक है - http://www.sahityashilpi.com/2010/01/blog-post_18.html
सुधा जी की यह कहानी बेशक हमें जाने पहचाने माहौल में ले जाती है, बड़े
बूढों का -समाज से, अपनों
से और कई बार अपने ही घर में उपेक्षित हो जाना हमारे लिए जाना पहचाना विषय है
लेकिन सुधा जी की ये छोटी सी कहानी अपने अंत तक आते आते अचानक हमें चौंका देती है
और हम अपने आप से से सवाल पूछने लगते हैं कि हम खुद जब इस मकड़जाल में फंसेंगे
तो....। ये तो बहुत डरावना है। हम इस तो से बचना तो चाहते हैं लेकिन.... - सूरज
प्रकाश-सम्पादन
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"ओ आसरे –-रामआसरे -----।''
"ओह माँ !तुम्हारी आवाज क्या कमरे से
रसोई में पहुँच सकती है?मुझे ही रामआसरे समझकर कोई काम बता दो। कुछ
दिनों को यहाँ आती हूँ ताकि तुम्हारा कोई काम कर सकूँ। कुछ तो मुझे सेवा का मौका
दो। ''.
"ओह चुन्नी ,तू न
जाने क्या बक-बक कर रही है। अरे यह नौकर मेरे लिए ही रखा गया है। विक्की की सख्त
हिदायत है कि वह पहले मेरा काम करे पर मेमसाहब के काम से उसे फुर्सत कहाँ?नौकर भी समझता है,मैं बेकार ,लाचार
–बस एक बोझ हूँ। उसे बुला –ना --।''
रामआसरे की जान अधर में। बेचारा डरते-डरते
बोला-"मेमसाहब ने बाजार भेज दिया था,अम्मा अभी गरम रोटी
लाता हूँ।''
वह रोटी बनाने लगा और चुन्नी बड़े प्यार
से माँ को रोटी खिलाने लगी। जर्जर मन से थकी माँ---अकेली न खा सकी और चुन्नी से भी
खाने का आग्रह करने लगी। बिना भावज के चुन्नी को खाना अच्छा न लगा।
बूढ़ी माँ भड़क पड़ी-"अरे तू किसके चक्कर
में पड़ी है। वह तो नाश्ता करती ही नहीं। मुझे -नौकर डबल रोटी कच्ची-पक्की सेककर
भुजिया के साथ दे जाता है। उपदेश तो बहुत –यह मत खाओ—पेट में दर्द हो जाएगा। भूख
तो लगती है। कैसे भूखी रहूँ।''
चुन्नी जानती थी-माँ कड़वा सत्य बोल रही
है पर उन्हें शांत करने के लिए इधर उधर की बातें करने लगी। पान और तंबाखू की शौकीन
माँ को उसने बीड़ा लगाकर दे दिया। माँ की आँखों में आँसू आ गए। उसका हाथ पकड़ते हुए
बोली –"बेटा ,तू तो दो दिन बाद चली जाएगी फिर तो मुझे अकेले ही इस कमरे
में ज़िंदगी काटनी होगी। नूतन अपने कमरे में रहती है। कमरा क्या है महल है। फ्रिज ,टी वी सभी तो है। बच्चे वही खाते-खाते टी वी देखते,
खाली समय में कंप्यूटर चलाते हैं। खुद भी न जाने क्या क्या जूस फ्रिज से निकालकर पीती
रहती है। मेरे लिए सेब नहीं खरीदे जाते।कहो तो सुनने को मिलता है –यहाँ तो मिलते
नहीं हैं,शहर में मिलते है। अच्छा ला-- फोन मिला—हेलो –आभा,तुमने तो फोन ही नहीं किया। अच्छा शाम को आओ तो दो किलो सेब लेती आना।''
माँ अपनी बड़ी बहू को फोन करके सो गई।
चुन्नी को भी भूख लगने लगी थी। वह रसोईघर में गई,जो कुछ मिला उससे पेट
भर लिया। तभी कमरे का दरवाजा खुला और उसने
छोटी भाभी की आवाज सुनी-"जीजी ,आपने खाना खा लिया क्या?"
"हाँ,बहुत इंतजार किया। तीन
बज गए तो सोचा—खा लूँ।"
नूतन बड़े इत्मिनान से खाने बैठ गई।
चुन्नी उसकी ओर देखती रह गई फिर सोचकर उठ गई –"अपने ही तो हैं,यह
तो मुझसे बहुत छोटी है ----समय से सब समझ आ जाएगी।"
माँ से उसने इस बारे में कोई बात नहीं
की। उन्हें बताने का मतलब था –उन्हें दुखी करना। उनका समय तो पिता जी की मृत्यु के
बाद ही जा चुका था। एक विशाल साम्राज्य की मलिका होते हुए भी विरक्तिवश जीते जी
उसे अपने बहू-बेटों को सौंप दिया जिसका परिणाम ही वे भोग रही थीं।
दिन छिपते ही बड़ी बहू आभा और बेटा फल
लेकर हाजिर हो गए। आभा की यह तारीफ थी कि सास के जबान हिलाते ही उनकी हर इच्छा
पूरी करती थी। माँ ने भी अबकी बार बड़े बेटे के पास जाना चाहा परंतु वहाँ पहले से
ही उसके ससुरालिया पौड़ लगाए थे, वे जाती कहाँ ?
कहने को तो इस कमरे में हर तरह का आराम था –सजा सजाया कमरा ,फोन
,फ्रिज,फर्नीचर,झोलीभर
पैसा। पर क्या वे सुखी थीं!
उस आधी रात अम्मा को भूख लगी। चुन्नी
सेब काटकर उन्हें देने लगी। पूछा-"माँ कैसी
हो?"
"बेटा,मैं लालकिले के तहखाने
में बंद वह शाहजहाँ हूं जिसकी मिल्कियत छीन ली गई है और तुम्हारी भाभी उस पर और
उसके राज्य पर शासन करना चाहती है। भाग्य के इस खेल में मैं हार चुकी हूँ।"
"सुनकर चुन्नी सन्नाटे में आ गई।रोम-रोम
एक अज्ञात आशंका से काँप उठा। माँ को 4-5 दवाएं दीं जिनकी वे आदी हो चुकी थीं।
सबसे उनका जी भर चुका था पर दवाओं से नहीं। माँ डायजापाम लेकर खर्राटें भरने लगीं।
चुन्नी उन्हीं के पास लेट गई। उनकी कमर में हाथ डालकर बुदबुदा उठी-"माँ, मैं
तुम्हें बहुत प्यार करती हूँ। मुझे तुम्हारे प्यार की जरूरत है। इस तरह नींद की
गोली लेकर मुझे न भूली।" जबकि वह जानती थी माँ सारे दुखों से छुटकारा पाने के लिए
अपने को भूलने की कोशिश में है।
चुन्नी के पोर-पोर में टीस उठने लगी।
काश!वह कुछ दिन माँ को अपने पास रख पाती! मगर रखती कैसे?वह
तो एक पल को भी बेटों की नगरी से जुदा नहीं होना चाहती थी। सब समय तो उनकी आँखों
में रहती है क्षमा और हृदय में लहराता है वात्सल्य का समुंदर। बड़े संकोच के साथ
बेटी के यहाँ कुल मिलाकर दो माह रही होगी वह भी टुकड़ों-टुकड़ों में। कहती
थी-"कन्यादान के बाद बेटी के घर का निवाला गले में अटक जाता है।" क्या एक वृदधा की
मूक पीड़ा ,असम्मान की ज़िंदगी—इनकी चर्चा भाई के सामने करे।
नहीं—नहीं --। उसने तो घर के साथ- साथ माँ की बागडोर भी पत्नी के हाथों थमा दी
अब तो वे उसी के रहमोकरम पर हैं।
चुन्नी क्या करे क्या न करे। खुद ही
प्रश्न करती,खुद ही जबाव दे देती। इस मकड़जाल में उसकी जान अटककर रह गई।
उसके भी तीन बेटे है। अज्ञात भय से हिल
गई। मस्तिष्क में हजारों डंक एक साथ चुभन देने लगे पर दूसरे ही क्षण आत्मघाती
विचारों को परे फेंकती उठ खड़ी हुई और बुदबुदाई –मैं अपने भाग्य का सृजन स्वयं
करूंगी।