मेरी कहानियाँ

मेरी कहानियाँ
आर्टिस्ट -सुधा भार्गव ,बिना आर्टिस्ट से पूछे इस चित्र का उपयोग अकानून है।

शुक्रवार, 29 अगस्त 2014

कहानी -4

आखिर माँ जो हूँ /सुधा भार्गव

चित्र -गूगल से साभार 

मैं अपने छोटे से परिवार में बहुत खुश थी। एक बेटा 17 वर्ष का व बेटी 10 वर्ष की  जो अपने भाई पर जान छिड़कती थी । सब अपने –अपने कार्यों के प्रति सजग और शांत ।  पिछले कुछ दिनों से शहर मे पाकिटमारी के एक गिरोह की चर्चा हो रही थी । जिसमें ज़्यादातर 12 वर्ष से 20 वर्ष के लड़के शामिल थे । मुझे अजीब सी दहशत हो गई ,कहीं मेरा बेटा -----न फंस ----।

हम पति –पत्नी काम के चक्कर में सुबह 10 बजे ही घर से निकल जाते । मन का भय प्रकट करते हुए एक दिन मैंने अपने पति से बेटे पर नजर रखने को कहा । शाम को जब वह घर लौट कर आया ,बड़ा थका-थका सा लग रहा था । रोज की तरह न मुझे आवाज दी और न ही  एक कप चाय मांगी । वह बिस्तर पर पड़ गया मानो सारी हिम्मत चूक गई हो ।

मैं तो घबरा गई । प्रश्न सूचक दृष्टि उसकी ओर उठ गई ।
-गिरोह का पता चल गया है । तुम्हारा बेटा भी उसका सदस्य ---है।
मेरी हड्डियों में तो ऐसा दर्द उठा कि  तड़प उठी । जमीन पर ही लुढ़क पड़ती अगर वह मुझे सँभाल न लेता। क्षण भर में मेरे चेहरे पर मुर्दनी छा गई । न जबान हिल रही थी और न शरीर का कोई अंग । कानों को पति की कही बात का विश्वास न हुआ । मैंने सीधे –सीधे  बेटे से ही पूछने का निश्चय किया । अँधियारे की चादर बिछते ही उसने घर में प्रवेश किया । हम दोनों उसे घूरे जा रह थे मानो वह भूत हो।उसकी चाल –ढाल और कपड़े पहनने का ढंग भी अजीब लगा। बीड़ी -सिगरिटी धुएँ के लच्छे उसका पीछा कर रहे थे । उसने बड़े शांत भाव से मान लिया कि वह पाकिटमारी गिरोह का सदस्य है । उसने यह भी स्पष्ट कर दिया कि गिरोह के सारे सदस्य उसकी बात मानते हैं और उसके इशारों पर नाचते हैं । अत : उनको छोडकर वह नहीं रह सकता है।

हमारे पालने में न जाने क्या कमी रह गई थी कि उसने गैरों मे अपनापन खोजा । बेचैनी की बाढ़ में मैं बह चली । बहुत हाथ पैर पटके ।किनारा न मिला  ,बस अपने भगवान को पुकारने लगी ।
रात्रि को सोते समय मैंने अपने पति के सामने इच्छा व्यक्त की –क्यों न गिरोह के सदस्यों को हम अपने घर में आश्रय दे दें । शायद घरेलू वातावरण देख वे जिम्मेदार नागरिक बन जाएँ । किसी न किसी मजबूरी के कारण उन्होंने जेब काटने का धंधा शुरू कर दिया है । मेरी बात सुनकर तो वह बिफर उठा और मुझे पागल करार कर दिया ।

मेरे बेटे का भला इसी में था कि सबको भला बनाने की कोशिश की जाए । किसी भी समय वे पकड़े जाने पर जेल की हवा खा सकते थे । मैंने जब अपने बेटे से कहा –सब यहाँ आकर रहो तो बड़ा खुश हुआ क्योंकि सबको सुरक्षा मिलती ।
उसके दस साथी अगले दिन आन धमके । घर में मुश्किल से तीन कमरे और एक आँगन था । सारा घर म्यूजियम नजर आने लगा । ।शुरू –शुरू में न कोई काम करता और न रसोई के काम में सहायता करता । मेरे पति घर –बाहर का काम करते जाते और इस मुसीबत की जड़ मुझे बताते जाते ।

एक आश्चर्य जनक बात देखने में आई । गिरोह का नेता जूडो –कराटे चैंपियन था । सुबह एक घंटा सबकी अच्छी –ख़ासी कवायद होती ताकि अनुचित काम करते समय वे अपनी सुरक्षा खुद कर सकें । एक दूसरे के लिए मरने –मारने पर उतारू हो जाते थे । झगड़ालू किस्म के व भद्दे शब्दों का प्रयोग करने वाले किशोर कभी –कभी मुझे जानवर लगने लगते ।
स्नेही बयार के झोंकों में मृदुल होना कभी उन्होंने सीखा ही नहीं । । पर उनमें कहीं न कहीं अच्छाई छिपी अवश्य थी जिसे बाहर निकालकर मुझे लाना था ।

एक माह का राशन 10 दिनों में ही खतम हो गया । पैसों का प्रबंध तो करना ही था । मैं खुद भूखी रह सकती थी पर उन्हें भूखा नहीं देख सकती थी ।
नानी की दी हुई मेरे पास एक सिलाई मशीन थी ।जिसे बेकार समझ कर स्टोर में रख दी थी । । उसे साफ किया ,कलपुर्ज़ों में तेल दिया ।अरे,वह तो फर्राटे से चल निकली । रात में छोटे बच्चों के कपड़े सीने का इरादा बुरा न था ।
उस रात मशीन की खड़खड़ से शायद कोई ठीक से न सो पाया । मेरे बेटे के साथी रात भर कुलबुलाते रहे । दिन में जैसे ही कपड़ों को बेचने के इरादे से घर से निकली ,एक लड़के ने मेरी बांह थाम ली । कपड़ों का बंडल लेकर उसके दो साथी साइकिल पर सवार हुए और अलग –अलग दिशाओं की ओर चल दिये। 

रात को खाना हम सब एक साथ ही एक परिवार की तरह बाँट –बांटकर खाते थे । उसी समय मेरी हथेली पर 500 रुपए रख दिये गए । जो लड़के कपड़े बेचकर आए थे उनको मैंने निकम्मों की तरह उनका खाली बैठना  ऊलजलूल  बकना भी अच्छा न लगता था । मैं उन्हें अपना पसीना बहाते हुए देखना चाहती थी ।
दोपहर को दो घंटे सोना लड़कों की आदत होती जा रही थी । कोई भी नौकरी करने को तैयार न था । तंग आकर एक बात मैंने उनसे साफ –साफ कह दी –तुम जीवन भर मेरे साथ रह सकते हो परंतु जेब काटते समय यदि तुम पकड़े गए तो तुम्हें छुड़ाने नहीं आऊँगी । दूसरी बात –तुम्हारी पाप की कमाई से पानी तक इस घर में नहीं आयेगा ।

मेरी बात का इतना असर हुआ कि वे नौकरी ढूँढने लगे । जिसे जो काम मिला अपना लिया । वे कुछ न कुछ रुपए लाकर मेरे हाथ पर रख देते । उनकी आँखों में एक विशेष चमक आती जा रही थी । शायद यह आत्मविश्वास की ज्योति थी । वही मेरी हिम्मत का पतवार बन रही थी ।
मेरी छोटी बेटी जब लड़कों से कहती –भैया –भैया चाय पी लो ।
वे चुपचाप उसकी बात मानते और तुरंत घर के कामों में हाथ बंटाने लगते । कोई सब्जी काटता,कोई बर्तन धोने लगता। 

मेरे आश्चर्य की सीमा न रही जब एक दिन मैं थकी मांदी घर लौटी और देखा –मेरी बेटी आमलेट खा रही  है । थर्मस में मेज पर चाय रखी थी । यह सब किसका करिश्मा है मुझे पूछने की जरूरत नहीं पड़ी क्योंकि पास ही खड़ा एक  लड़का मुझे कनखियों से देख रहा था । मैं जब उसकी ओर देखती वह झट से निगाह नीची कर लेता । उसको भौदल्ला कह कर पुकारते थे । मुझे उसका यह नाम बिलकुल अच्छा नहीं लगता था पर विवशता से यही नाम लेना पड़ा ।
-भौदल्ला,यह आमलेट किसने बनाया ?
-मैंने । रूमा को बहुत भूख लगी थी । आपके लिए चाय भी बनाई है । आप भी तो आंटी बहुत थक गई हो।
-तुमने यह कहाँ से सीखा ?
-आपको रोज बनाते देखता हूँ । आज पहली बार बनाया है ।
तब से मैं सबकी आंटी बन गई । कोई -कोई तो मुझे भावातिरेक में माँ भी कहता। 
एक बात मैं समझ गई अंजान बच्चे अब मेरे होने लगे हैं । वे किसी न किसी तरह मेरी मदद करना चाहते हैं । यह मेरे लिए बहुत संतोष की बात थी ।
मैंने बच्चों को पाँच समूहों में विभाजित कर अलग अलग काम सौंप दिये । मैंने कभी उनके दोषों पर ध्यान नहीं दिया । उनके नाम भी बदल दिये जिनका कुछ न कुछ विशेष अर्थ होता था । मजे की बात कि वे अपने को नाम के अनुरूप ही ढालने लगे ।मैंने एक का नाम प्रेम रखा । उस झगड़ालू का बात करने का तरीका ही बदल गया । उसकी आवाज ,उसका एक –एक शब्द मोहब्बत का संदेश देने लगा । कोई लड़ाई करता तो उनका निपटारा करने बैठ जाता । मुझे यह देखकर कभी -कभी बहुत हंसी आती । दूसरे लड़के का नाम सत्यप्रकाश रखा । उस मक्कार ,झूठ बोलने वाले लड़के ने सच बोलने की कसम खा ली । सच बोलने के कारण उस लड़के पर डांट भी पड़ जाती पर उसने सच बोलना न छोड़ा ।

बच्चों की आदतें बदलने लगीं । अच्छा खासा सुधार गृह  हो गया मेरा घर । घर का काम –काज लड़के काफी कर लेते थे इसलिए शाम होते ही मैं सिलाई मशीन लेकर बैठ जाती । कुछ दिनों के बाद बचत होने लगी और मैंने दूसरी मशीन खरीद ली । काम अच्छा चल निकला ।
पतिदेव अब तो मेरे उठाए कदम की  सराहना करने लगे । । उनके प्रयास से बैंक से कुछ धन राशि उधार मिल गई । हमने उससे दो कारें व कुछ कंप्यूटर खरीद लिए । लड़कों ने  कंप्यूटर का ज्ञान प्राप्त किया और फिर वही उनकी रोजी रोटी का साधन बन गया । परंतु मैं इतने से ही संतुष्ट न थी। मैं चाहती थी कि लड़के पढ़ लिख कर अपना भविष्य बनाएँ । यह तभी संभव होता जब वे धन कमाने के साथ साथ शिक्षा भी प्राप्त करते । सब लड़के मेरे  सपने  को पूरा करने के लिए कटिबद्ध थे ।
मैंने घर का मोर्चा सँभाला । बच्चे मन से पढ़ने व धन कमाने में जुट गए । मेरे पतिदेव  तन –मन धन से मेरे थे ।हम सब एक किश्ती पर सवार हो गए और बढ़ते ही गए । भँवर में फँसे पर पक्के इरादों के कारण निकल गए और पीछे मुड़कर कभी न देखा ।
एक समय था जब मैंने 12 बच्चों को सँभाला था पर आज मेरे बच्चे हम पति पत्नी को सँभाल रहे हैं । सिलाई करना छोड़ दिया है लेकिन खाना अब भी मैं सब  को खुद ही परोसती हूँ क्योंकि सदैव आशंका बनी रहती है –कहीं मेरे युवा बच्चे कम न खाएं ,दुबले न हो जाएँ ।आखिर  माँ जो हूँ !

सुधा भार्गव 
बैंगलोर 
समाप्त


मंगलवार, 12 अगस्त 2014

कहानी 3



संधिपत्र/सुधा भार्गव 

जंगल में मंगल

"हा--–हा-- घबरा गए मुझे देखकर ।
हाँ !हाँ मैं आदमखोर हूँ । किसे –किसे मारोगे ?कुछ दिनों पहने एक हाथी को गोली मार दी थी । परसों एक चीते को फांसी की सजा सुना दी , और आज मुझ बाघ को कटघरे मेँ खड़ा कर दिया है।पर यह तो बताओ –हमारा कसूर क्या है ?"
"कसूर !चार -चार मासूम बच्चों को गटक गए और पूछते हो कसूर क्या है ?"
"अपनी भूख मिटाने ही को तो बस्ती मेँ आना पड़ा। क्या  भूख मिटाना पाप है !तुमने तो अपनी भूख मिटाने को जंगल के जंगल काट दिये हमारा घर उजाड़ दिया । शाकाहारी जानवरों और दूध मुंहे पक्षियों को तुमने अपना आहार बनाकर हमारे पेट पर लात मार दी । रहे सहे पक्षी और छोटे जानवर जंगल छोड़ दूसरी जगह जाकर बस गए।अरे तुम जिनावर खोरों के कारण ही तो हम आदमखोर पैदा हो गए।
तुम्हारे तीन चार कम हो गए तो बिलबिला उठे । हमारे बारे मेँ कभी सोचा ?
जंग तुमने ही छेड़ी हैं । जंगल मेँ न जाने कितना  रक्तपात हुआ । हमारे अनगिनत भाई –बंधु मारे गए । कितने ही जंगलवासियों के वंश के वंश तहस नहस कर दिये । हरी –भरी  फल –फूलों से भरे वृक्ष धराशायी हो गए।  हरी  मुलायम घास पर और हमारी गुफाओं पर वुलडोजर चलवाकर धरती माँ को कितना रुलाया। तुम्हारे अपराध एक हो तो गिनाएँ। हम जंगली कहलाते हैं पर तुमने जंगलीपना दिखने मेँ कोई कसर न छोड़ी।"

"बहुत बोल लिए  अब चुप लगाओ। हम जानवर ही सही पर हैं शक्तिशाली।तुममे से एक एक को चुनकर मौत के घाट उतार  देंगे । कोई नहीं बचाने आयेगा। तुम हमारा कर ही क्या लोगे ?"
"अपनी ताकत  पर गुमान न करो  । एक को मारोगे दस पैदा हो जाएँगे । भूल गए उन फिरंगियों को जिन्होंने कितनी निर्दयता से हमारे देश मेँ अपना दमन चक्र चलाया था । पर क्या हुआ! एक क्रांतिकारी को मारते थे तो दस पैदा हो जाते थे। एक दिन ऐसा आया कि पूरा देश क्रांति की आग मेँ जल उठा और अंग्रेजों को भारत छोडना पड़ा।अगर जंगल का राजा तुमने खुद बनना चाहा तो  आदमखोर बना पूरा जंगल इस बस्ती पर छा जाएगा। फिर तो तुम्हारा नामोनिशान भी न रहेगा । अब भी समय है चेत जाओ । जंग तुमने छेड़ी है ,तुम्हें  ही इसे रोकना होगा । वरना इस जंग मैं हम सब बर्बाद हो जाएंगे । तुम अपने घर के राजा रहो और हमें अपने जंगल का राजा रहने दो । हम भी खुश तुम भी खुश।"

बस्ती के रहने वालों मेँ शेर की बातों ने दहशत फैला दी।
वे सोचने पर मजबूर हो गए ।
किनारे पर किशोरों की एक टोली थी जिसमें ज़्यादातर आठवीं -नवीं के छात्र थे । वे जानते और समझते थे कि किस तरह से मनुष्य अपने मतलब के लिए जंगल और पशु –पक्षियों का दुश्मन बन बैठा है। उनकी  सहानुभूति शेर के साथ थी । छोटे होने के कारण वे बड़ों के सामने बोलने नहीं पाते थे । लेकिन अब वे अपनी चुप्पी तोड़े बिना न रहे ।
मुखिया का लड़का आगे बढ़कर अपने पिता से बोला –"बप्पा जी ,शेर राजा ठीक ही कह रहे हैं । सब अपनी –अपनी सीमा मेँ रहें तो शांति और सुख दोनों बने रहते हैं । आप दोनों संधि कर लीजिये ।"
"बेटा ,कह तो तू ठीक ही रहा है ।"
"तब लीजिए यह संधि पत्र और कर दीजिए अपने –अपने हस्ताक्षर । इसमें लिखा है --जंगल और बस्ती हमेशा एक दूसरे की सुविधा का ध्यान रखेंगे ।"

मुखिया ने हस्ताक्षर कर दिये और शेर राजा ने अपना पंजे की भारी भरकम छाप लगा दी । उस दिन से आज तक न कोई उस जंगल मेँ शिकार करने जाता है और न ही पेड़ को धड़ से अलग करवाता है । सुना है वह जंगल बड़ा घना व विराट हो गया है । ऊंचे ऊंचे पत्तों से ढके पेड़ों को देख बादलों का मन चलायमान हो उठता है और वे इतना बरसते हैं –इतना बरसते हैं कि जंगल मेँ मंगल  हो  जाता है 
बैंगलोर