मेरी कहानियाँ

मेरी कहानियाँ
आर्टिस्ट -सुधा भार्गव ,बिना आर्टिस्ट से पूछे इस चित्र का उपयोग अकानून है।

बुधवार, 24 जून 2020

पूछो तो सच 2-सृजन की मौत



   2-सृजन की मौत 
    
   सुधा भार्गव  
                                     
     बेटे ने फ्लॅट खरीदा और बड़े शौक से उसमें परिवर्तन कराने लगा।रसोई  का दरवाजा आधा लकड़ी का और आधा लोहे की जाली का बना था। वह उसे पसंद न था। मुझसे बोला --माँ,जाली की जगह मैं शीशा फिट करना चाहता हूँ। उस पर आप पेंटिंग कर दो। मैं उसका मुंह देखती रही ।कैसे कहूँ यह मेरे लिए बड़ा कठिन होगा।इतनी बड़ी ग्लास पेंटिंग!  मन की बात मन में ही दबाती दो दिनों तक साहस जुटाती रही। अभी तक 1x2फुट पेंटिग्स ही बनाई थीं। लेकिन बेटे के आग्रह से मैं बीच बीच में उत्साह से भी भर जाती । आत्मविश्वास ने सिर उठाया और संदेह की दीवार गिराते हुए अंदर से  आवाज आई –मैं अवश्य बना लूँगी। जब निर्णय ले ही लिया तो प्रारम्भ करने में क्या देरी!        यही सोचकर अगले दिन बढ़ई से 3फुट लंबा और दो फुट चौड़ा मोटा शीशा लाने के लिए कह दिया। उसका नाम विजय था। इन्टरनेट और पुस्तकों की सहायता से फूलों का डिजायन पसंद करने में लग गई। जो पसंद आया उसे चार्टपेपर पर शीशे के साइज का बड़ा किया । 3-4 दिनों की लगातार मेहनत व लगन से शीशे की पेंटिंग  तैयार हो गई। अपनी विजय की खुशी का उत्सव मैं खुद ही मनाने लगी। उसकी खूबसूरती आँखों में भर लेना चाहती। काफी देर तक  टकटकी लगाए देखती। लगता सच में उनकी महक मेरे इर्द-गिर्द हवा में घुल गई  है। दिन में इठलाती और रात में पेंटिंग के फ्रेम से झाँकते -मुस्कराते फूल मेरे सपनों में आते।
     शाम को घूमकर जब मैं घर की ओर आ रही थी एक सहेली मिल गई। बोली-क्या करती रहती हो। एक दिन सत्संग में चलो ।
  “मैं तो सत्संग करती रहती हूँ।" मेरी  आँखें मुस्कराईं।
  “कहाँ ?किसके साथ?"वह तो चौंक गई। 
   मेरे घर आकर देखो। तभी तो पता चलेगा। तुम्हें भी उस सत्संग में शामिल होकर आनंद आयेगा।मेरा इशारा अपनी पेंटिंग पर था।  
    अगले दिन  मैं घर के काम में व्यस्त थी कि करीब 12  बजे  दरवाजे में दो सज्जन घुसे-हमारे श्री मान के  अंतरंग मित्र। एक को कंप्यूटर पर कुछ काम था इसलिए मेरे स्टडी रूम चले गए। बेधड़क अपनी उँगलियाँ अक्षरों पर घुमाने लगे। मैंने सुरक्षा की दृष्टि से पेंटिंग ऊंचाई पर डाइनिंग टेबल पर रख दी  थी। ताकि कोई उससे टकरा न जाय।
     ये दोनों सज्जन कुछ  चाय नाश्ता तो जरूर करेंगे।  कुर्सी पर बैठकर गप्प-शप्प भी होगी।  यह सोचकर पेंटिंग  डाइनिंग टेबिल से उठाकर मैंने अन्य  कमरे में पलंग पर रख दी । । दूसरे मित्र साहब इतने बेतकल्लुफ थे कि वे भी  मेरे स्टडी रूम की तरफ बढ़ गए। जैसे ही सज्जन पेंटिंग वाले कमरे की ओर चले मेरी  तो  सांसें रुक गई ओर अनिष्ट होने की आशंका से ग्रसित  उनके पीछे भागी। मुझमें और उसमें मुश्किल से एक फुट का फासला रहा होगा  कि  देखते ही देखते वे  शीशे की पेंटिंग पर बैठ गए। चटक -चटक -चटाक आवाज हुई और उसकी  सांसें टूट गईं।   चटक चटक की  आवाज से लगा जैसे  मेरी हड्डियां ही तोड़ दी गई हों। 
     वे तो आँखों के होते हुए भी सूरदास निकले। । कोई बच्चा तोड़ता  तो 2-3 थप्पड़ लगा कर कुछ कड़वे बोल बोलकर अपने मन की निकाल लेती--- बच्ची होती तो रो रोकर घर भर देती। पर कुछ भी तो ऐसा नहीं हुआ।
     ईश्वर ने मेरा दर्प चूर करने के लिए क्षण भर में  अच्छे -खासे आदमी को अंधा बना दिया। चादर के नीचे डनलप का गद्दा था। ।बैठने से गद्दे का संतुलन बिगड़ गया। शीशे के टुकड़े टुकड़े हो गए। । शीशे के क्या टुकड़े हुए—मेरे टुकड़े हो गए।
    सज्जन भी तड़ की आवाज से चौंक गए । उठे तो उसके टूटने का दुख तो उन्हें भी हुआ। पर सॉरी कहकर शीघ्र ही कमरे से निकल गए और ड्राइंगरूम में जाकर बातों में  खो गए। किसी को कहते सुना –छोड़ यार –दूसरी बन जाएगी। लगा जैसे गरम गरम शीशा मेरे कानों में उड़ेल दिया हो। पीड़ा से छटपटा उठी। 
 अपने को कमरे में  बंद कर लिया और घंटों मातम मनाती रही। दर्द से कराहती रही। चटके फूलों को डबडबाई आँखों से देखती रही। न जाने कितनी बार उन्हें सहलाया जिन्हें असमय मौत मिल गई थी। मन में तो आया तोड़ने वाले का गिरहवान पकड़कर नीचे फिंक दूँ मगर क्या ऐसा कर सकती थी। जब अंदर की पीड़ा असहनीय हो गई तो मोबाइल में कह उठी-"बेटा,पेंटिंग वाला  शीशा टूट  गया। सत्तू ने मेरी ग्लास पेंटिंग तोड़ दी। इसके बाद मैं कुछ कह न सकी। हिचकियों ने मेरा गला दबोच लिया।
    मुझे लगा मेरे ज़िंदगी का शीशा ही दरक गया है और उसके टुकड़े मेरे  कलेजे में  घुस गए हैं। बड़ी सहजता से कह  दिया गया –कोई बात नहीं –दूसरी बन जाएगी। अरे जन्म देने वाले से तो पूछा होता---उसके सृजन  को मौत देते समय उस पर  क्या बीती होगी। वह सदमा बर्दाश्त हुआ नहीं कि अन्य सृष्टि की उम्मीद लग गई।
    मैंने अभी ग्लास पेंटिंग को दफनाया नहीं है। बिस्तर पर अजीज की तरह लेती हुई है। उसके टूटे टुकड़ों को इस तरह रखा है ताकि उसकी विकलांगता नजर न आए।आते-जाते उस पर भरपूर निगाह डाल लेती हूँ।खंडित होने पर  भी उसके सौंदर्य में  कोई कमी नहीं आई है। वैसे ही ,पतले पतले गुलाबी होठों की तरह नन्ही-नन्ही खिलती कलियाँ ,उन पर उड़तीं लाल,नीली,पीली बैंगनी तितलियाँ।
लेकिन पेंटिंग उठकर दीवार की शोभा तो कभी न बन पाएगी। बेजान सी कब तक लेटी रहेगी।
     संहारक और दर्शक  ---सॉरी कहकर पल्ला झाड़कर अलग हो गए। मेरे शोक ,में सम्मिलित होने वाला कोई नहीं।  अकेली शोकसभा कर न पाई। जल्दी से दूसरे फ्लैट 290 में गई । विजय को अपने साथ हुए हादसे को सुनाया तो सन्न रह गया। मेरे उदास चेहरे की ओर ताकता रहा। एक कारीगर एक कलाकार के असीमित संताप की अनुभूति कर बेचैन हो उठा। उसी को तो दरवाजे के फ्रेम  में उस जीती जागती पेंटिंग को फिट करना था। कोंट्रेक्टर कमाल बोला-"कैसे टूट गई। वह तो बहुत सुंदर लग रही थी।"उसका इतना भर कहना  मेरे तप्त हृदय को कितनी  ठंडक पहुँचा गया  बता  नहीं सकती।
    बेटे को भी मैंने अपने रंजिश क्षणों का भागीदार बनाना चाहा। । अपनी बात कहते-कहते रो पड़ी । शायद वह मेरी भावनाओं को समझ गया था। बोला-माँ,ऐसे न दुखी हो!कैसे न दुखी होऊँ ! दूसरी पेंटिंग सुमनों से भरी महकती क्यारियाँ बना लूँगी पर जो गई सो गई। वह तो नहीं जी सकती। उसका अनुकल्प कैसे हो सकती है !—यह विनाशकारी हाथ क्यों नहीं समझते। लगता है मेरा शोक कभी समाप्त न होगा।
समाप्त 
1006.7.23  
  

मंगलवार, 16 जून 2020

3-कोरोना का भ्रमित मंजर

 15.6.2020  /              
 कोरोना तुम्हारे कारण हम दलदल में फंसते जा रहे हैं --तुम जाते क्यों नहीं !
        बेचारी डिग्री 
सुधा भार्गव
      कोरोना के कारण लाखों मजदूर  बेरोजगार -बेघरबार हो  गए हैं इसमें कोई शक नहीं !पर कल  दूरदर्शन में यह देखकर चकित हो गई कि इंजीनियर ,एम.ए. और ग्रेजुएट फावड़ा संभाले मिटटी खोद रहे हैं  और कुछ शिक्षित ईंटें धो रहे हैं ।    पूछने पर बोले  -हमें लोकडाउन में कहाँ काम मिलेगा !पेट भरने के लिए सोचा जो काम मिल जाये उसे ही कर लें।  ।कानों -आँखों पर विशवास न कर सकी --- शिक्षित होने पर भी ऐसी नौबत !  पर वास्तविकता कुछ और ही थी।   डिग्री मिले उन्हें कई महीने हो गए हैं।  डिग्री तो है पर उनके पास डिग्री के अनुसार योग्यता नहीं है।  सपने बहुत ऊंचे रहे होंगे --कम पैसे की नौकरी करना अपनी तौहीन समझा होगा ।  ग्रेजुएट पास युवक में तो इतनी भी योग्यता नहीं थी कि एप्लिकेशन लिख सके।  इसी बीच कोरोना की चढ़ाई  हो गई।  गाँव किस मुंह से जाते ! घर वालों ने एक एक पाई जोड़ उन्हें पढ़ाया लिखाया होगा  पर नौ  महीने से कुछ नहीं कमाया बस घरवालों को  झूठी  तसल्ली देते रहे होंगे ।  समझ नहीं आता किसे दोष दें! युवकों को या अपनी शिक्षा प्रणाली  को।
       मेरे ख्याल से उनके शिक्षण में मानवीय मूल्यों का समावेश हो जाता तो पढाई ख तम कर  लेने के बाद  किसी बड़ी कंपनी या व्यवसाय में नौकरी करके केवल पैसा कमाने की चिंता उन्हें नहीं रहती। न ही जगह -जगह भटकते महीनों गुजार देते।   वे अपने ज्ञान को मानवता की भलाई में लगाने वाले कार्य की और बड़े जोश से  कदम बढ़ा चुके होते।  आज जब हम आत्म निर्भर भारत की बात करते हैं तो इस दृष्टि से शिक्षा के हर क्षेत्र में कौशल और ज्ञान के साथ -साथ मानवीय मूल्य परक शिक्षा का होना अनिवार्य सा  लगता है।  यही एक रास्ता है कोरोना काल  के आर्थिक संकट से जूझने का. मित्रों आपकी क्या राय है इस बारे में --!  

रविवार, 14 जून 2020

पूछो तो सच 3 -

14.6.2020-kadve ghuunt
तुम जाते क्यों नहीं !
तुम्हारे कारण हमें कड़वे  घूँट पीने पड़ रहे हैं।  आखिर कब तक चलेगा यह सब !

सेनेटाइज्ड धार्मिक अनुष्ठान /सुधा भार्गव 

     पिछले साल दुर्भाग्यवश  छोटा  भाई हमें रोता  बिलखता छोड़ इस दुनिया से चला गया।  उस समय मेरा ऑपरेशन हुआ था सो अंतिम समय में मैं उसे देख  भी न सकी।   मन बहुत तड़पा , उसे किसी तरह समझाया- अब न सही उसकी बरसी में जरूर जाऊँगी।  मई २०२० में उसकी बरसी थी।  पर उससे पहले ही  कोरोना महामारी ने अपना विकराल रूप  दिखाना शुरू कर दिया ।लॉकडाउन के कारण टिकट कैंसिल करवाना पड़ा।  बहुत रोई बहुत रोई पर आंसुओं से क्या कोरोना पिघल जाता !जैसे -जैसे बरसी का दिन समीप आता जाता पंख कटे पंछी की तरह फड़फड़ाती। वाट्सएप पर सन्देश भेज नमन कर ही संतोष करती।
       ठीक बरसी  के दिन भतीजी ने  जूम का एक लिंक और पास वर्ल्ड भेजा।  जरा  सी कोशिश के बाद लैप टॉप की स्क्रीन पर वीडियो कॉफ्रेंसिंग शुरू हो गई।  पूरा परिवार बैठा नजर आया। ऐसा लगा कोसों दूर बैठे डिस्टेंसिंग का बहुत अच्छी तरह पालन किया जा रहा है।  चेहरे उदास --डबडबाती आँखों में एक ही प्रश्न  --यह किस तरह मिल रहे हैं !
     भाई के घर का नजारा शुरू हुआ --जगह -जगह हैण्ड सेनेटाइजर आँखें  मिचमिचाते इशारा कर रहे थे पहले हम से मिलो।स्वच्छ वस्त्र धारण किये  पंडित जी हवन कुंड के आगे बैठे मन्त्रों का उच्चारण कर भतीजे से आवश्यक रस्में करा रहे थे।  यह हर तरह से सेनेटाइज्ड धार्मिक अनुष्ठान था।   पंडितों को देने का सामान एक तरफ एकदम अलग रखा था।  रसोइयन व् घर का काम काज करने वाली  के न आने के कारण  भाभी व  भतीजा बहू घर के कामों में लगे थे। बीच बीच में भाभी कातर निगाहों से धार्मिक विधियां देखतीं  और छलकती आँखों से फिर रसोई में चली जाती।शायद उसे कोई काम याद आ जाता होगा।   बाद में केवल तीन पंडितों को खाते  देखा। आश्चर्य हुआ लॉकडाउन में ये कहाँ से चले आये।  पर वे पंडित भी  सेनेटाइज़्ड  थे जो अपने घर रोज नहीं जाते थे। रिश्तेदारों से  अलग रहते  ताकि खान-पान  और दान देने की प्रक्रिया निर्बाध गति से चलती रहे।वह अनोखा  अनुष्ठान दो घंटे चला। अंत में हम ठगे से रह गए।न मिलना जुलना न गले लगना न आशीर्वादों की खनक न सांत्वना के दो बोल।  दूर जाती संस्कृति को देखा  और देखते ही रहे --हिम्मत न हुई कि  उसे रोक   सकें ।     जैसे पिक्चर ख़तम होने पर उठ जाते हैं उसी प्रकार हम उठ गए --पर हमारी पिक्चर  ख़तम नहीं हुई  थी। मस्तिष्क के पटल पर   बार बार एक ही बात आ-जा रही थी  --क्या अब हमें ऐसे ही रहना होगा!
      यदि हम ऐसे ही रहने लगे तो एक दिन आएगा जब नई पीढ़ी  अपने दादा -दादी ,नाना-नानी से सुनेगी कि आजकल की तरह हमारे समय जूम नहीं चलता  था।पहले ऐसा होता था --ऐसा होता था तो अविश्वास से आँखें झपकाती बोलेगी -क्या सच में ऐसा भी होता था!

  14. 6. 2020




शनिवार, 13 जून 2020

पूछो तो सच-4


तू  न जाने कहाँ से आया ! आया तो जमकर बैठ गया।  अब यह भी जल्दी से बता दे--कब जाएगा तू। 

     यही सोचती हुई शाम को बालकनी में बैठकर नीचे झांक रही थी। बगीचे में गिनती के बच्चे नजर आ रहे थे।  २-३ युवक दौड़ लगा रहे थे. मेरा कोई बुजुर्ग साथी टहलता नजर नहीं आया।  कोरोना के कारण मेरी तरह सब घर में कैद हैं।  सुनने और देखने में यही आया है कि  कोरोना बूढ़ों को देख एकदम बाज की तरह झपट्टा मारता  है। आँखें तो नीचे ही देख  रही थीं पर दिमाग इतना चंचल कि उड़ता उड़ता २० साल पहले की दुनिया में पहुँच गया।

वह वृद्धा  

     सुबह कॉलेज जाते समय एक गली से गुजर रही हूँ । वहां  एक आलीशान तिमंजलि  इमारत है ।  उसकी दूसरी मंजिल की बालकनी में एक वृद्धा  खड़ी है जो   पैरों की शिथिलता के कारण  बाहर जाने में अशक्त है  पर दूसरों से मिलने के लिए उनसे बात करने के लिए उसमें तड़पन है । बेटा नौकरी पर जाता दिखाई दिया  और बहू घर के  कामों में व्यस्त।  सो अकेलापन उसे काटने को दौड़ पड़ा है ।  वह बालकनी से बाहर हाथ निकालकर दूसरों को बुला रही है ।
एकाएक मुझे अहसास हुआ मैं वही वृद्धा हूँ --उसी की तरह लोगों से मिलना चाहती हूँ ,बातें करना चाहती हूँ पर हूँ उससे भी ज्यादा मजबूर !  पैरों में सामर्थ्यता  होते हुए भी निडर होकर निकलने में एकदम असमर्थ।

13. 6. 2020