2-सृजन की मौत
सुधा भार्गव
बेटे ने फ्लॅट खरीदा और बड़े शौक से उसमें परिवर्तन
कराने लगा।रसोई का दरवाजा आधा लकड़ी का और
आधा लोहे की जाली का बना था। वह उसे पसंद न था। मुझसे बोला --माँ,जाली
की जगह मैं शीशा फिट करना चाहता हूँ। उस पर आप पेंटिंग कर दो। मैं उसका मुंह देखती
रही ।कैसे कहूँ यह मेरे लिए बड़ा कठिन होगा।इतनी बड़ी ग्लास पेंटिंग! मन की बात मन में ही दबाती दो दिनों तक
साहस जुटाती रही। अभी तक 1x2फुट पेंटिग्स ही बनाई थीं। लेकिन बेटे के आग्रह से मैं बीच बीच में उत्साह से भी भर जाती । आत्मविश्वास ने सिर उठाया और संदेह की दीवार गिराते हुए अंदर से आवाज आई –मैं अवश्य बना लूँगी। जब निर्णय ले ही
लिया तो प्रारम्भ करने में क्या देरी! यही सोचकर अगले दिन बढ़ई से 3फुट लंबा और दो
फुट चौड़ा मोटा शीशा लाने के लिए कह दिया। उसका नाम विजय था। इन्टरनेट और पुस्तकों
की सहायता से फूलों का डिजायन पसंद करने में लग गई। जो पसंद आया उसे चार्टपेपर पर
शीशे के साइज का बड़ा किया । 3-4 दिनों की लगातार मेहनत व लगन से शीशे की पेंटिंग तैयार हो गई। अपनी विजय की खुशी का उत्सव मैं
खुद ही मनाने लगी। उसकी खूबसूरती आँखों में भर लेना चाहती। काफी देर तक टकटकी लगाए देखती। लगता सच में उनकी महक मेरे
इर्द-गिर्द हवा में घुल गई है। दिन में
इठलाती और रात में पेंटिंग के फ्रेम से झाँकते -मुस्कराते फूल मेरे सपनों में आते।
शाम को घूमकर जब मैं घर की ओर आ रही थी एक सहेली मिल
गई। बोली-क्या करती रहती हो। एक दिन सत्संग में चलो ।
“मैं तो सत्संग करती रहती हूँ।" मेरी आँखें मुस्कराईं।
“कहाँ ?किसके साथ?"वह
तो चौंक गई।
मेरे घर आकर देखो। तभी तो पता चलेगा। तुम्हें भी उस
सत्संग में शामिल होकर आनंद आयेगा।मेरा इशारा अपनी पेंटिंग पर था।
अगले दिन मैं घर के काम में व्यस्त थी कि करीब 12 बजे दरवाजे में दो सज्जन घुसे-हमारे श्री मान के
अंतरंग मित्र। एक को कंप्यूटर पर कुछ काम था इसलिए मेरे स्टडी रूम चले गए। बेधड़क
अपनी उँगलियाँ अक्षरों पर घुमाने लगे। मैंने सुरक्षा की दृष्टि से पेंटिंग ऊंचाई पर डाइनिंग टेबल पर रख दी थी। ताकि कोई उससे टकरा न जाय।
ये दोनों सज्जन कुछ
चाय नाश्ता तो जरूर करेंगे। कुर्सी
पर बैठकर गप्प-शप्प भी होगी। यह सोचकर पेंटिंग डाइनिंग टेबिल से उठाकर मैंने अन्य कमरे में पलंग पर रख दी । । दूसरे मित्र साहब इतने बेतकल्लुफ थे कि
वे भी मेरे स्टडी रूम की तरफ बढ़ गए। जैसे
ही सज्जन पेंटिंग वाले कमरे की ओर चले मेरी तो सांसें रुक गई ओर अनिष्ट होने की आशंका
से ग्रसित उनके पीछे भागी। मुझमें और उसमें मुश्किल से एक फुट का फासला रहा
होगा कि देखते ही देखते वे शीशे की पेंटिंग पर बैठ गए। चटक -चटक -चटाक आवाज
हुई और उसकी सांसें टूट गईं। चटक चटक की आवाज से लगा जैसे मेरी हड्डियां ही तोड़ दी गई हों।
वे तो आँखों के होते हुए भी सूरदास निकले। । कोई बच्चा
तोड़ता तो 2-3 थप्पड़ लगा कर कुछ कड़वे बोल
बोलकर अपने मन की निकाल लेती--- बच्ची होती तो रो रोकर घर भर देती। पर कुछ भी तो
ऐसा नहीं हुआ।
ईश्वर ने
मेरा दर्प चूर करने के लिए क्षण भर में अच्छे -खासे आदमी को अंधा बना दिया। चादर के
नीचे डनलप का गद्दा था। ।बैठने से गद्दे का संतुलन बिगड़ गया। शीशे के टुकड़े टुकड़े
हो गए। । शीशे के क्या टुकड़े हुए—मेरे टुकड़े हो गए।
सज्जन भी तड़ की आवाज से चौंक गए । उठे तो उसके टूटने
का दुख तो उन्हें भी हुआ। पर सॉरी कहकर शीघ्र ही कमरे से निकल गए और ड्राइंगरूम में जाकर बातों में खो गए। किसी को कहते सुना –छोड़ यार –दूसरी बन
जाएगी। लगा जैसे गरम गरम शीशा मेरे कानों में उड़ेल दिया हो।
पीड़ा से छटपटा उठी।
अपने को कमरे में बंद कर लिया और घंटों मातम मनाती रही। दर्द से
कराहती रही। चटके फूलों को डबडबाई आँखों से देखती रही। न जाने कितनी बार उन्हें
सहलाया जिन्हें असमय मौत मिल गई थी। मन में तो आया तोड़ने वाले का गिरहवान पकड़कर
नीचे फिंक दूँ मगर क्या ऐसा कर सकती थी। जब अंदर की पीड़ा असहनीय हो गई तो मोबाइल
में कह उठी-"बेटा,पेंटिंग वाला शीशा टूट गया। सत्तू ने मेरी ग्लास पेंटिंग तोड़ दी। इसके
बाद मैं कुछ कह न सकी। हिचकियों ने मेरा गला दबोच लिया।
मुझे लगा मेरे ज़िंदगी का शीशा ही दरक गया है और उसके
टुकड़े मेरे कलेजे में घुस गए हैं। बड़ी सहजता से कह दिया गया –कोई बात नहीं –दूसरी
बन जाएगी। अरे जन्म देने वाले से तो पूछा
होता---उसके सृजन को मौत देते समय उस पर क्या बीती होगी। वह सदमा बर्दाश्त हुआ
नहीं कि अन्य सृष्टि की उम्मीद लग गई।
मैंने अभी ग्लास पेंटिंग
को दफनाया नहीं है। बिस्तर पर अजीज की तरह लेती हुई है। उसके टूटे टुकड़ों को इस
तरह रखा है ताकि उसकी विकलांगता नजर न आए।आते-जाते उस पर भरपूर निगाह डाल लेती
हूँ।खंडित होने पर भी उसके सौंदर्य में कोई कमी नहीं आई है। वैसे ही ,पतले पतले गुलाबी होठों की तरह नन्ही-नन्ही खिलती कलियाँ ,उन पर उड़तीं लाल,नीली,पीली बैंगनी तितलियाँ।
लेकिन पेंटिंग उठकर दीवार की शोभा तो कभी न बन पाएगी।
बेजान सी कब तक लेटी रहेगी।
संहारक और दर्शक
---सॉरी कहकर पल्ला झाड़कर अलग हो गए। मेरे शोक ,में सम्मिलित होने वाला कोई
नहीं। अकेली शोकसभा कर न पाई। जल्दी से दूसरे फ्लैट 290 में गई । विजय को
अपने साथ हुए हादसे को सुनाया तो सन्न रह गया। मेरे उदास चेहरे की ओर ताकता रहा।
एक कारीगर एक कलाकार के असीमित संताप की अनुभूति कर बेचैन हो उठा। उसी को तो दरवाजे के फ्रेम में उस जीती
जागती पेंटिंग को फिट करना था। कोंट्रेक्टर कमाल बोला-"कैसे
टूट गई। वह तो बहुत सुंदर लग रही थी।"उसका इतना भर कहना मेरे तप्त हृदय को कितनी ठंडक पहुँचा गया बता नहीं सकती।
बेटे को भी मैंने अपने रंजिश क्षणों का भागीदार बनाना
चाहा। । अपनी बात कहते-कहते रो पड़ी । शायद वह मेरी भावनाओं को समझ गया था।
बोला-माँ,ऐसे न दुखी हो!कैसे न दुखी होऊँ ! दूसरी पेंटिंग
सुमनों से भरी महकती क्यारियाँ बना लूँगी पर जो गई सो गई। वह तो नहीं जी सकती।
उसका अनुकल्प कैसे हो सकती है !—यह विनाशकारी हाथ क्यों नहीं समझते। लगता है मेरा
शोक कभी समाप्त न होगा।
समाप्त
1006.7.23
समाप्त
1006.7.23
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