14.6.2020-kadve ghuunt
तुम जाते क्यों नहीं !
तुम्हारे कारण हमें कड़वे घूँट पीने पड़ रहे हैं। आखिर कब तक चलेगा यह सब !
सेनेटाइज्ड धार्मिक अनुष्ठान /सुधा भार्गव
पिछले साल दुर्भाग्यवश छोटा भाई हमें रोता बिलखता छोड़ इस दुनिया से चला गया। उस समय मेरा ऑपरेशन हुआ था सो अंतिम समय में मैं उसे देख भी न सकी। मन बहुत तड़पा , उसे किसी तरह समझाया- अब न सही उसकी बरसी में जरूर जाऊँगी। मई २०२० में उसकी बरसी थी। पर उससे पहले ही कोरोना महामारी ने अपना विकराल रूप दिखाना शुरू कर दिया ।लॉकडाउन के कारण टिकट कैंसिल करवाना पड़ा। बहुत रोई बहुत रोई पर आंसुओं से क्या कोरोना पिघल जाता !जैसे -जैसे बरसी का दिन समीप आता जाता पंख कटे पंछी की तरह फड़फड़ाती। वाट्सएप पर सन्देश भेज नमन कर ही संतोष करती।
ठीक बरसी के दिन भतीजी ने जूम का एक लिंक और पास वर्ल्ड भेजा। जरा सी कोशिश के बाद लैप टॉप की स्क्रीन पर वीडियो कॉफ्रेंसिंग शुरू हो गई। पूरा परिवार बैठा नजर आया। ऐसा लगा कोसों दूर बैठे डिस्टेंसिंग का बहुत अच्छी तरह पालन किया जा रहा है। चेहरे उदास --डबडबाती आँखों में एक ही प्रश्न --यह किस तरह मिल रहे हैं !
भाई के घर का नजारा शुरू हुआ --जगह -जगह हैण्ड सेनेटाइजर आँखें मिचमिचाते इशारा कर रहे थे पहले हम से मिलो।स्वच्छ वस्त्र धारण किये पंडित जी हवन कुंड के आगे बैठे मन्त्रों का उच्चारण कर भतीजे से आवश्यक रस्में करा रहे थे। यह हर तरह से सेनेटाइज्ड धार्मिक अनुष्ठान था। पंडितों को देने का सामान एक तरफ एकदम अलग रखा था। रसोइयन व् घर का काम काज करने वाली के न आने के कारण भाभी व भतीजा बहू घर के कामों में लगे थे। बीच बीच में भाभी कातर निगाहों से धार्मिक विधियां देखतीं और छलकती आँखों से फिर रसोई में चली जाती।शायद उसे कोई काम याद आ जाता होगा। बाद में केवल तीन पंडितों को खाते देखा। आश्चर्य हुआ लॉकडाउन में ये कहाँ से चले आये। पर वे पंडित भी सेनेटाइज़्ड थे जो अपने घर रोज नहीं जाते थे। रिश्तेदारों से अलग रहते ताकि खान-पान और दान देने की प्रक्रिया निर्बाध गति से चलती रहे।वह अनोखा अनुष्ठान दो घंटे चला। अंत में हम ठगे से रह गए।न मिलना जुलना न गले लगना न आशीर्वादों की खनक न सांत्वना के दो बोल। दूर जाती संस्कृति को देखा और देखते ही रहे --हिम्मत न हुई कि उसे रोक सकें । जैसे पिक्चर ख़तम होने पर उठ जाते हैं उसी प्रकार हम उठ गए --पर हमारी पिक्चर ख़तम नहीं हुई थी। मस्तिष्क के पटल पर बार बार एक ही बात आ-जा रही थी --क्या अब हमें ऐसे ही रहना होगा!
यदि हम ऐसे ही रहने लगे तो एक दिन आएगा जब नई पीढ़ी अपने दादा -दादी ,नाना-नानी से सुनेगी कि आजकल की तरह हमारे समय जूम नहीं चलता था।पहले ऐसा होता था --ऐसा होता था तो अविश्वास से आँखें झपकाती बोलेगी -क्या सच में ऐसा भी होता था!
14. 6. 2020
तुम जाते क्यों नहीं !
तुम्हारे कारण हमें कड़वे घूँट पीने पड़ रहे हैं। आखिर कब तक चलेगा यह सब !
सेनेटाइज्ड धार्मिक अनुष्ठान /सुधा भार्गव
पिछले साल दुर्भाग्यवश छोटा भाई हमें रोता बिलखता छोड़ इस दुनिया से चला गया। उस समय मेरा ऑपरेशन हुआ था सो अंतिम समय में मैं उसे देख भी न सकी। मन बहुत तड़पा , उसे किसी तरह समझाया- अब न सही उसकी बरसी में जरूर जाऊँगी। मई २०२० में उसकी बरसी थी। पर उससे पहले ही कोरोना महामारी ने अपना विकराल रूप दिखाना शुरू कर दिया ।लॉकडाउन के कारण टिकट कैंसिल करवाना पड़ा। बहुत रोई बहुत रोई पर आंसुओं से क्या कोरोना पिघल जाता !जैसे -जैसे बरसी का दिन समीप आता जाता पंख कटे पंछी की तरह फड़फड़ाती। वाट्सएप पर सन्देश भेज नमन कर ही संतोष करती।
ठीक बरसी के दिन भतीजी ने जूम का एक लिंक और पास वर्ल्ड भेजा। जरा सी कोशिश के बाद लैप टॉप की स्क्रीन पर वीडियो कॉफ्रेंसिंग शुरू हो गई। पूरा परिवार बैठा नजर आया। ऐसा लगा कोसों दूर बैठे डिस्टेंसिंग का बहुत अच्छी तरह पालन किया जा रहा है। चेहरे उदास --डबडबाती आँखों में एक ही प्रश्न --यह किस तरह मिल रहे हैं !
भाई के घर का नजारा शुरू हुआ --जगह -जगह हैण्ड सेनेटाइजर आँखें मिचमिचाते इशारा कर रहे थे पहले हम से मिलो।स्वच्छ वस्त्र धारण किये पंडित जी हवन कुंड के आगे बैठे मन्त्रों का उच्चारण कर भतीजे से आवश्यक रस्में करा रहे थे। यह हर तरह से सेनेटाइज्ड धार्मिक अनुष्ठान था। पंडितों को देने का सामान एक तरफ एकदम अलग रखा था। रसोइयन व् घर का काम काज करने वाली के न आने के कारण भाभी व भतीजा बहू घर के कामों में लगे थे। बीच बीच में भाभी कातर निगाहों से धार्मिक विधियां देखतीं और छलकती आँखों से फिर रसोई में चली जाती।शायद उसे कोई काम याद आ जाता होगा। बाद में केवल तीन पंडितों को खाते देखा। आश्चर्य हुआ लॉकडाउन में ये कहाँ से चले आये। पर वे पंडित भी सेनेटाइज़्ड थे जो अपने घर रोज नहीं जाते थे। रिश्तेदारों से अलग रहते ताकि खान-पान और दान देने की प्रक्रिया निर्बाध गति से चलती रहे।वह अनोखा अनुष्ठान दो घंटे चला। अंत में हम ठगे से रह गए।न मिलना जुलना न गले लगना न आशीर्वादों की खनक न सांत्वना के दो बोल। दूर जाती संस्कृति को देखा और देखते ही रहे --हिम्मत न हुई कि उसे रोक सकें । जैसे पिक्चर ख़तम होने पर उठ जाते हैं उसी प्रकार हम उठ गए --पर हमारी पिक्चर ख़तम नहीं हुई थी। मस्तिष्क के पटल पर बार बार एक ही बात आ-जा रही थी --क्या अब हमें ऐसे ही रहना होगा!
यदि हम ऐसे ही रहने लगे तो एक दिन आएगा जब नई पीढ़ी अपने दादा -दादी ,नाना-नानी से सुनेगी कि आजकल की तरह हमारे समय जूम नहीं चलता था।पहले ऐसा होता था --ऐसा होता था तो अविश्वास से आँखें झपकाती बोलेगी -क्या सच में ऐसा भी होता था!
14. 6. 2020
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