प्रतिलिपि डॉट कॉम पर प्रकाशित कहानी -2016
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राजा लाइलाज जानलेवा बीमारी पार्किंसन
से पीड़ित थे। नवंबर 2010 मेँ ही डॉक्टरों ने जबाब दे दिया था। बोले-न ही देशी
दवाएं काम कर रही हैं और न ही विदेशी। टेस्ट पर टेस्ट हो रहे हैं पर उसका कोई
नतीजा नहीं निकल रहा। यदि आप अगली बार मनीपाल हॉस्पिटल लाए तो सीधा आई ॰सी ॰यू॰
में ले जाएंगे। मैं इसके लिए राजी न थी। बच्चों ने भी तय किया कि अस्पताल की तरह
सारी सुविधाएं जुटाते हुए घर मेँ पापा की देखरेख की जाएगी और विधाता जितना भी समय दे उसी
को वरदान समझ कर पल पल साथ बिताएँगे।
घर पर दिनोंदिन हालत बिगड़ती ही चली
गई लेकिन तीन माह बच्चों को पिता का और मुझे पति का सामिप्य मिला । इसी मेँ हमने
अपने को धन्य समझा।
12फरवरी 2011 की रात ने कहर ढाना शुरू कर दिया----
लगता था उसका पल पल प्राण खींच रहा है। सुबह से ही ये
बहुत खींचकर सांस ले रहे थे। सीने से आती
घर्र –घर्र की आवाज,पसलियों का ऊपर -नीचे उठना ,साथ में कराहने की आवाज--- दिल में छेद करने को बहुत थी। कभी लगता ,कह रहे हैं—माँ—माँ। आँख से दो आँसू लुढ़क पड़ते। पीड़ा का अंत या छोर नजर न आता।सुनने में अशक्त
और वाणी से मूक, मुंह सफेद झागों से भरा हुआ। मैंने मुंह के
पास एक छोटा सा कटोरा (बाउल) टेढ़ा करके टिका दिया।जैसे ही किटाणु रहित पट्टी के
झीने कपड़े से (sterilized gauge) मुंह
खोलकर उसे साफ करती ,बहुत ज्यादा सी लार झाग सहित बाउल में
आन पड़ती।
सुबह से ही
न जाने क्यों, मैंने राजा का कमरा नहीं छोड़ा । लगता था इन्हीं
के पास मंडराती रहूँ ।
दोपहर उनके पास ही पलंग पर बैठ गई। सिर पर हाथ
फेरती रही,आँसू पोंछती रही,सीना मलती
रही। खाना भी मैंने पलंग पर ही खाया —ऐसा
तो होता न था।
डबल बैड पर आधे से ज्यादा जगह वाटर बैड ने घेर ली
थी ,उसी पर ये लेटते थे। मेरे बैठने या सोने को काफी कम जगह बचती थी। पर उस
दिन तो पेट भर जाने पर तिरछी होकर मैंने
राजा के तकिये पर अपना सिर टिका दिया। हल्की सी झपकी भी ले ली। उठी तो रेखा से
बोली –मुझे यहीं साहब के पास चाय दे जा।
पलंग पर बैठी चुसकियाँ लेती सोच रही थी –इनको छोड़ -छोड़कर
बहुत काम कर लिया । ये मेरे साथ को तरस जाते थे। अब एक पल को अकेला या किसी पर नहीं छोडूंगी। पछताने लगी—। पर कितनी देर से अक्ल आई। गहरी
सांस लेकर रह गई। मैं अक्सर सामने पड़ी मेज कुर्सी पर बैठकर ही चाय पीना पसंद करती
थी पर उस दिन तो राजा मेरी पहली पसंद थे । नवविवाहिता की तरह जहां वे ---वहाँ मैं।
उनकी परछाईं बन जाना चाहती थी।
इनका मुंह से खाना बंद था। पेट में पेग ट्यूब लग गई
थी। शाम को मैंने ट्यूब से सब्जियों का सूप दिया। डर था कहीं अंदर कोई कष्ट न हो---
थोड़ा -थोड़ा करके उसमें डाला। अंतिम बार तो मैंने रात को साढ़े ग्यारह बजे तरल सूप सा दिया । खुश थी इन्होंने तो पूरा खाना
खा लिया।इतना कष्ट है –खाने पीने से शक्ति मिलती रहेगी।
मालूम था राजा की हालत गंभीर है लेकिन साथ में विश्वास और आशा की डोर से भी बंधी थी कि जल्दी मुझे छोडकर नहीं जाएंगे । करीब एक दो माह तो रहेंगे ही।
विश्वास कैसे न करती!नहाते समय कल और आज खूब अच्छे
से आँखें खोलीं। मेरी तरफ अपनी बड़ी -बड़ी आंखों से देखा –मैं तो निहाल हो गई । जीजू
(male नर्स)इनका स्पंज करने ,नहलाने धुलाने व मालिश करने आया करता था। वह बोला था -आज तो ये चौकन्ने हैं और आराम से पाउडर लगवा
रहे हैं।
-हाँ,आँखें खोले तो
हैं।उनमें चमक भी है। लगता है हम सबको अपने आसपास देख खुश हो रहे हैं।
-हिलडुल भी रहे हैं।
-तो क्या फिजियाथैरेपी हो सकती है?
-जरूर ,और दिनों से तो
मरीज ठीक ही लग रहा है। पखाना भी हो गया है और सांस भी ठीक से ले रहे हैं।
-दो हफ्ते से फिजियाथैरेपी नहीं हो पाई है। अभी
फिजियाथ्रेपिस्ट सेंथिल से बातें करती हूँ।
-हेलो सेंथिल –क्या अभी आ सकते हो?
-हाँ जी –I am just coming॰
मैं सोच सोच कर बहुत खुश थी-- थैरेपी देने से ज्यादा चेतन हो
जाएँगे। पिछले 5-6 दिन से बड़े निढाल से थे।
खुश होती या उदास, दिमाग
रफ्तार से दौड़ता रहता।
दशहरे का महाविनाशक दिन बार बार ख्यालों में आकर मुझे कचोटने लगा। उससे पहले शारीरिक रूप से
न सही मानसिक रूप से एकदम ठीक थे। बॉकर के सहारे कुछ कदम चल तो लेते थे । डॉक्टर
भी कहते थे –बड़ी अच्छी बात है कि याददाश्त
एकदम ठीक है। लगता है किसी डॉक्टर की नजर लग गई । हो सकता है मेरी ही नजर लग गई
हो। दशहरे के दिन शाम के समय पूजा करने बैठे। ये पलंग पर मसनद के सहारे नए कपड़े
पहने हुए थे। पास में ही मेज पर समान रख पूजा की तैयारी कर ली थी। वैसे तो यह पूजा
जमीन पर बैठकर होती है पर इनके लिए यह असंभव था। बहू -बेटे और बच्चे भी थे। इनके
कमजोर चेहरे पर मुस्कराहट बड़ी भली लग रही
थी। बेटे ने एक कागज पर अनाज, घी ,चीनी, सोना, चाँदी आदि के भाव लिखे । फिर मैं बोली –लिखो,पूरब का घोडा ,पश्चिम का नीर –उत्तर का ओह मैं तो
इसके आगे भूल गई –अजी आप ही बताओ –आपकी याददाश्त तो बहुत तेज है।
दक्षिण का चीर –हँसते होठों से धीमी आवाज में बोले।
पर—यह क्या-- हँसते ही मुंह टेढ़ा होने लगा। सारा बदन हिलने लगा विशेषकर सिर। भागे
लेकर माल्या हॉस्पिटल । पूजा –वूजा सब भूल गए। उस दिन से दौरे लगातार आने लगे।
बीमारी के झटके भूत की तरह चिपक गए और होश-
हवाश छीनकर ही रहे। लगता था जैसे जीते जी आत्मा
छीन ली हो।
याददाश्त
खतम होने लगी--। आँखें खोलते तो शून्य में ताकते। आवाज—ओह –केवल फुसफुसाकर रह
जाते। तीन माह में 6 बार अस्पताल में भर्ती किया। टेस्ट पर टेस्ट –सारा शरीर छलनी
हो गया। अंत में डॉक्टर ने कह दिया-मरीज की हालत में कोई सुधार नहीं है। विदेशी
दवाएं भी काम नहीं कर रही। अगली बार आप लाए तो सीधा I॰C॰U॰ में ले जाएंगे। जो वहाँ
इलाज होगा वह कमरे में नहीं हो सकता। मैं चौंक गई-जब कोई दवा काम ही नहीं कर रही तो इलाज कैसा। मैं बची
सांसें डॉक्टरों के हवाले नहीं करना चाहती थी । इसलिए निर्णय किया कि घर ले जाकर
मरीज की जरूरत के अनुसार सारी सुविधाएं जुटाएँगे।सेवा करेंगे और जितना उनका साथ
मिल जाए उतना अच्छा।
इस समय वे हड्डियों का ढांचा मात्र रह गए थे । पर
तब भी मैं खुश --शरीर से मेरे पास है।जो कुछ हो रहा है मेरी आँखों के सामने।
छोटी बहू का एक हफ्ते पहले आपरेशन हुआ था बेटे के
साथ टांके कटवाकर शाम को मेरे पास ही आ गई। वे मेरे ही एपार्टमेंट मेँ दूसरे ब्लॉक
मेँ रहते हैं।अलग रहते हुए भी हम एक हैं। परेशानियों
के बीच वह तो बेचारी अपनी परेशानी भूल ही गई थी। मैं तो हमेशा इनके बारे में ही सोचती
रहती थी। एक बार उससे न पूछा क्या हाल है?
बहुत थकी लग रही थी। 9 बजे तक सोनू अपने पापा के
पास ही बैठा रहा। दोनों पोतियाँ अपनी नानी के पास थीं। उनकी तरफ से जरा बेफिक्री
थी। सब का एक साथ जगना ठीक न समझा मैंने। बड़ी हिम्मत से कहा-तुम दोनों जाकर आराम
करो,थोड़ी देर सो भी लो।जरूरत होने पर न जाने कब तुम्हें बुला बैठूँ ।
उनके जाते ही रात का सन्नाटा मेरे
भीतर भी आलती-पालती मारकर बैठ गया। अंदर ही अंदर घबराहट होने लगी। इनका कष्ट देखा
नहीं जा रहा था। काश दर्द को बाँट सकती। मेरा
दर्द बांटने की जरूर कोशिश की जाती रही पर क्या मेरा दुख बँट पाया?। हाँ,अपनी व्यथा कहकर हलकापन महसूस करती हूँ। कल सुबह ही तो बड़ी बहू लंदन
गई है। जाने से पहले बोली भी थी –मम्मी जी ,मैं रुक जाऊं
क्या ?
–न –न जाओ । ये पहले से ठीक लगते हैं । बच्चे लंदन
में अकेले हैं। मैंने ही कह दिया। उसकी भी तो जुम्मेवारियाँ हैं।
बहू से पहले कुछ दिनों को मेरे पास बेटी थी।उसके
आने से मुझे बड़ा सुकून मिलता। डॉक्टर है। अपने पापा के बारे मेँ चार बातें मुझे
समझाकर जाती। भाई लोग भी बारी -बारी से अपनी बहन का दुख बांटने आ जाते
थे। लगता है राजा को सबके आने का आभास था। अपने चहेतों से मिलकर खुशी का अनुभव जरूर
किया होगा।
मैंने बहू-बेटे
को आराम करने भेज तो दिया पर पर एक समस्या आन खड़ी हुई :अकेली
कैसे मन लगाऊँ।नींद तो मुझसे कोसों दूर थी। तभी ध्यान आया-बड़ा बेटा लंदन में ऑफिस से आ गया होगा। स्काई
पी पर बातें करके अकेलापन का बोझ हल्का कर सकती हूँ। सो लैपटॉप खोलकर बैठ गई।
बेटा बोला –माँ ,पापा की
तरफ कैमरा कर दो। हम उन्हें देखेंगे और आप बातें करती रहो। लैपटॉप इनके पलंग पर रखकर
उसके पास ही स्टूल पर बैठ गई --दोनों हाथों के बीच में सिर थामे—आंसुओं को पलकों में समाए। नहीं चाहती थी कि बच्चे मेरे
आँसू देखें। अपने को वश में न रखती तो बेटा भारत के लिए तुरंत चल देता। 15 दिन पहले
तो देख कर वह गया ही था और उसकी पत्नी मेरे कलेजे में उमड़ती पीड़ा की धारा को रोकने के लिए रुक गई थी। सबका सहयोग होते हुए भी कुछ नहीं कर पाती थी, सिवाय इनको टुकुर- टुकुर देखने के । बीच -बीच में उठती,इन्हें देखती,दूसरे कमरे में जाकर पलकों में ठहरे
आँसू खाली कर आती।
इनमें आया
सूक्ष्म से सूक्ष्म परिवर्तन मेरी निगाहों
से न बचता । पिछले दो दिनों फिजियाथैरेपी होने से राजा की त्वचा बड़ी मुलायम लग रही
थी। यह देख तो मुझे बड़ी राहत मिली कि गले का थूक –कफ काफी मात्रा में खुद ही निकल बाहर
आ रहा है। और समय तो मुझे निकालना पड़ता था।
बैठे -बैठे रात के
दो बज गए। इनके सीने की घरघराहट की आवाज और कराहने की आवाज धीमी पड़ने लगी थी। धीरे
-धीरे ये शांत हो रहे थे। मैं समझी अब इन्हें थोड़ा आराम है।आँखें तो कई घंटों से
बंद ही थीं। अब इसे मैंने गहरी नींद माना। स्काई पी बंद कर दिया और बच्चों से कहा –अब
पापा की बेचैनी कम है ,मैं भी सो लूँ। सुबह 7 बजे ही पापा
को पेग ट्यूब से खाना देना है।
मुझ बेवकूफ के दिमाग में यह नहीं आया कि यह शांति
दूसरी तरह की शांति है ,जीवन शक्ति कम हो रही है। नेपकिन से
मैंने राजा का मुंह एक बार फिर साफ किया और सोने का उपक्रम करने लगी। थकी तो थी ही
सो नींद को आना पड़ा।
*
मैं अक्सर 6 बजे उठती थी।हल्की सी कसरत से दिनचर्या
शुरू करती। चाय का पानी केथली में रखकर दूध में सूजी डालकर इनका आहार तैयार करने
में लग जाती। ।बीच बीच में इनके पास चक्कर लगाने से अपने को न रोक पाती। इससे मुझे
बड़ी शांति मिलती। वैसे भी इनके खाने को तैयार करने व खिलाने का दायित्व मेरा ही
था। मैं इनको सँभालती और नौकरानी सारा घर।
यूरिन बैग खाली कर इनको कुछ खिलाती,फिर चाय की चुसकियाँ लेते हुए सारे दिन के लिए शक्ति जुटाती। मेरी तो यह
जंग थी और सच पूछो तो मैं हारना नहीं चाहती थी।प्याला खाली करते ही इनके कामों में
लग जाती-आँख साफ करना,गला साफ करना,बेटाडीन
सोल्यूशन लगाना,पाउडर लगाना ,तकिये धूप
में डालना,रात की ठंड में ओढ़ाए दो लिहाफों में से एक करना।
पैर दाबकर या हाथ से मलकर रक्त संचार को ज्यादा करने की कोशिश करती।इससे इनके पैर
थोड़े से सीधे हो जाते। ये लेटे ही रहते
थे। करवट दिलाने का भी ध्यान रखना पड़ता ताकि कोई जख्म न हो जाय। तब भी जख्म तो हो
जाते थे। ये बोल नहीं* पाते थे ,सोच सोच कर अधमरी हो
जाती-कितना दर्द हो रहा होगा। करवट दिलाते समय यदि जरा भी झटका लगता तो कष्ट से ये
बुरा सा मुंह बनाते। मैं करवट दिलाने वाले पर बरस पड़ती।
अंत में बाल काढ़ती क्योंकि सुबह उठकर इन्हें बाल काढ़ना पसंद था। उसके बाद तो
जीजू (male nurse)आकर नहलाता धुलाता,
मालिश आदि करता मगर वह आता 11 बजे और
फिजियांथरेपिस्ट आता 1 बजे।तब तक ये गंदे से पड़े रहे मुझे असह्य था। मैंने जीजू से
काफी काम सीख लिया था।
इतना व्यस्त देख कुछ लोग सोचते मुझे बड़ा कष्ट हो
रहा है। सच पूछो तो इनके काम करने में मुझे बड़ा सुख मिलता था।
*
*
13 फरवरी की सुबह मेरी नींद साढ़े छ्ह बजे खुली।
हड़बड़ाकर उठ बैठी-अरे आज तो इनके काम को देरी हो गई। अपने सब काम भुलाकर सीधे इनके
सामने जाकर खड़ी हो गई। यूरिन बैग भरा नहीं था।ठीक-ठीक था। इससे मुझे बड़ा सुकून
पहुंचा। हाँ,इनके मुंह के बाहरी किनारे पर चिपका थोड़ा सा
सफेद झाग दिखाई दिया। मैंने उसे साफ किया और बुदबुदाई –आह!झाग आने तो बंद हो गए।
गुड—गुड।
आँखें अधखुली थीं। मैंने उन्हें बंद किया। मुंह भी
खुला हुआ था। अपने को रोक न सकी—यह तो हमेशा की आदत है—सोते समय अधखुले पलक और
खुला मुंह रखने की। नेपकिन लेकर माथा पूछने से पहले प्यार से माथे पर मैंने हाथ
फेरा। चौंक पड़ी —एँ—माथा ठंडा –न ए॰सी॰चल रहा न ठंडी हवा आ रही। हथेली छूकर देखी—ठंडी,तालुए छुए—कुछ कुछ ठंडे । फिर तो पागल की तरह शरीर छूने लगी---बाकी शरीर
तो गरम है जरूर ब्लडप्रशर कम हो गया है—तलुए कपड़े से रगड़कर देखती हूँ—अभी गरम हो
जाएँगे। सोना को फोन करती हूँ आ जाएगा। ओह रविवार है।मुश्किल से 7 बजे हैं वह तो सो
रहा होगा।चलो थोड़ा इंतजार कर लेती हूँ। आशंकाओं के बादल घुमड़-घुमड़ मुझे भिगोने
लगे।
गरदन की दूसरी तरफ कान के पीछे के जख्म देखने चाहे
ताकि दवा लगा दूँ या उसके नीचे थोड़ी सी रुई गद्दी की तरह लगा दूँ जिससे घाव रगड़ न खाए। अचरज—जख्मों की ललाई 25%ही रह गई
थी। कमाल है एक रात में ऐसा अजूबा। जैसे ही मैंने कनपटी छोड़ी गरदन नवजात शिशु की
तरह लुढ़क पड़ी।मैं घबरा गई। झटपट ऊपर का लिहाफ हटाया। दोनों हाथ सीने पर थे। एक हाथ
सीने से जैसे ही हटाया बेजान सा एकदम सीधा हो गया। दूसरा हटाया –उसका भी वही हाल।
पैर---- इतना लचकदार!अनहोनी---। सारा कड़ापन कहाँ चला गया? हाथ-पैर तो सीधे होते ही
नहीं थे। उन्हें देख माँ के गर्भ में लेते शिशु की याद आती थी। हाथ मुड़े हुए, पैर सीने से लगे।
मुझे क्या हो गया है?बेकार
परेशान हो रही हूँ। एक बार तो पहले भी ऐसा
हुआ था करीब दो हफ्ते पहले। हाथों में ढीलापन लगा तो छटपटा गई और बाहर से बड़े बेटे
और बेटी को बुला लिया। नाहक उन्हें परेशान किया। दो तीन दिन बाद तो हाथ पहले की
तरह कड़े हो गए थे। --इस बार भी शरीर का यह
ढीलापन ठीक हो जाएगा। अपने को खुद ही सांत्वना
देने लगी।
कुछ ही देर में मुझे आभास हुआ –कमरे में बड़ी शांति
हैं। चारों तरफ निगाह दौड़ाई । अरे –ये तो एकदम नहीं कराह रहे हैं। ज़ोर -ज़ोर से
खींचकर सांस भी लेना बंद हो गया है। शायद सांस ठीक से लेने लगे है मगर अचानक –कैसे
हो गया?
नाक के आगे हथेली रखी—सांस तो नहीं फेंक रहे! सीने
पर कान लगाए –धड़कन ---? बार बार कान लगाने लगी --कुछ समझ
में नहीं आया । हाथ की नब्ज भी टटोली पर
कुछ समझ न सकी। मेरा धैर्य चुक रहा था। अजीब सी दहशत से भर उठी—अपने जीवन साथी को
खोने की दहशत जिसने साथ -साथ मरने-जीने की कसमें खाई थीं। जो मुझे छोड़कर जाना
चाहता था।
काँपते हाथों से छोटी बहू को फोन मिलाया। एक सांस
में कह गई-
-पापा जी के हाथ-पैर ढीले हो गए हैं,नाक से सांस नहीं चल रही है। जल्दी आकर ब्लडप्रेशर लो। सोना से बोलो-तुरंत
आई ॰सी ॰यू ॰वाले डॉक्टर को जो इसी अपार्टमेंट में रहते हैं,लेकर
आए। देरी न करे।
मेरे दिमाग में जो -जो आ रहा था एक क्षण की भी
प्रतीक्षा किए बिना कहती जा रही थी। माथा तो ठनक ही गया था कि दाल में कुछ काला
है।
सुना था प्राण निकलने के बाद शरीर में हवा भरने का
डर रहता है इसलिए नाक-कान में रुई लगाना जरूरी है। मैंने इनके कान में तो रुई लगा
दी पर नाक में आप जान कर नहीं लगाई। संदेह के घेरे में भटकती मेरी बुद्धि बोली-
तेरा बहम ही हो शायद कि सांस नहीं ले रहे
हैं। नाक में रुई लगाने से तो दम ही घुट जाएगा।
मैंने कल ही तो फिजियाथैरेपिस्ट से पूछा था-सेंथिल,यदि किसी दिन वक्त-बेवक्त मुझे जरूरत आन पड़ी तो तुम आओगे क्या?
-मैडम जरूर आऊँगा।
उसके एक वाक्य में अपनत्व की महक पा जी उठी।
होनी ऐसी हुई कि अगली सुबह सबसे पहले मैंने उसे ही फोन खटखटाया। बहू -बेटे के आने से पहले
ही वह आन पहुंचा, उसने मेरे विश्वास का मान रखा। वह
कम उम्र का बड़ा काबिल और रहमदिल डॉक्टर है।
उसको देखते ही मैं विचलित हो उठी-सेंथिल,देखो तो अंकल कैसे हैं?तुम इनका ब्लड प्रेशर लो।
उसने लिया पर चुप। कमरे से बाहर जाकर मेरे बेटे का
इंतजार करने लगा।
बहू भी आई। ब्लडप्रेशर लिया।
-कितना है शिल्पा ?
-ब्लडप्रेशर यंत्र काम नहीं कर रहा है ।
-क्या हो गया?दोनों को पता नहीं
लग पा रहा है। सोनू बड़ी देर लगा रहा है। डॉक्टर आकर ही कुछ बताएगा। शरीर तो इनका
गरम है,मुंह भी खुला है—वह तो इनकी आदत है। पलकें तो मैंने
बंद कर दी हैं। बोलती जा रही थी।
डॉक्टर साहब आए।मैं राजा के पास से हटकर दूसरी तरफ जाकर खड़ी हो गई। उनसे मैंने क्या कहा –पता नहीं मगर दूसरे ही क्षण कमरे से बाहर हो गई। वे क्या कहने जा रहे हैं,सुनने की शक्ति नहीं थी न ही बच्चों का सामना कर सकती थी। कुछ भी कहूँ पर कान तो अंदर ही लगे थे। सुना- He is no more॰
मेरा वह मजबूत पेड़ जड़ से उखड़कर धराशाई हो गया था
जिसकी छाया में कभी मुझे ठंडी –ठंडी हवा
के झोंकों में जीवन का अनंत सुख मिला। मैं बिखर गई और बिखर गया मेरा घर संसार।
सोना ने बताया –डॉक्टर साहब के आने से कुछ देर पहले
ही प्राण निकले हैं।
- बेटा,डॉक्टर साहब से
मृत्यु प्रमाण पत्र ले लेना।अपने को सँभालते हुए क्षीण स्वर में बोली।
उस सुबह की बेला में शायद राजा मेरे उठने का इंतजार ही कर रहे थे तभी तो
आँखें अधखुली थीं। मुझे जरूर देख लिया होगा। इस दुख की घड़ी में भी सुखद अनुभूति से
भर उठी।
सोना के दोस्त बहुत मिलनसार और एक दूसरे के काम आने
वाले हैं। उसने अपने दोस्त बुला लिए। भागदौड़ शुरू हो गई।
आठ बजते -बजते जीजू रोजाना की तरह इनको नहलाने –धुलाने
आ गया।उसे क्या मालूम था –पंछी उड़ चुका है। उसने डायपर निकालकर फेंका व सफाई की।
दोनों पैर बांधे ,हाथ बांधे। कैथेट्रल ट्यूब हटाई ,पैगट्यूब की जगह पट्टी बांधी। उसे निकाला नहीं गया।पत्थर की तरह खड़ी सब
देखती रही। मैंने इनको लिहाफ अच्छी तरह ओढा दिया ताकि इस आपत्तिजनक हालत में इनको
कोई देख न पाए।
कुछ समय तो हम फूट फूटकर रोए फिर जबर्दस्त आंसुओं
को रोकने की चेष्टा में लग गए ताकि आगे सोचें।
बहू-बेटे व इनके दोस्त अंतिम क्रिया की तैयारी मेँ
जुट गए। लेकिन मैं ---एक मिनट को भी इनके पास से नहीं हिली। मन की उलझने मुझे अपनी
लपेट में लेने लगीं-शायद डॉक्टर ने ठीक से न देखा हो?शायद कोई चमत्कार ही हो जाए और इनकी साँसे चलने लगें। शरीर तो अभी गरम
हैं। लिहाफ और अच्छे से लपेट देती हूँ ,इससे गर्मी और ज्यादा
बनी रहेगी।
बार बार इनका शरीर छूकर देखती-ठंडक बढ़ी तो
नहीं---लेकिन बढ़ी --। कनपटी की ठंडक
माथे पर छा गई।फिर नाक का ऊपर का कोण ठंडा होने लगा—फिर
–फिर ठोड़ी की नोक । मैंने खुले मुंह को फिर बंद करने की कोशिश की मगर बंद न हुआ—अरे
अभी तो जीवन है –वरना मुंह तो बंद हो जाता। मन ही मन बोली। मौत का साया तो बढ़ता ही
जा रहा था। हाथों की उँगलियों से शुरू हुई ठंडक आगे बढ्ने लगी। पैरों की उँगलियों
और तालुए की ठंडक भी ऊपर चढ़ने लगी।
ठंडक धीरे धीरे बढ़ रही थी। मैं अहमक़ सी हिसाब लगा
रही थी -दो घंटे हाथ-पैरों की ठंडक मेँ लग गए तो बाकी शरीर ठंडा होने में 2-3 घंटे
तो जरूर लगेंगे। सब तो इधर –उधर कामों मेँ लगे हैं इनके सामीप्य ये घंटे तो नितांत
मेरे हैं। तब तक पेट-सीना और कमर गरम थे।
ऐसे कठिन समय में मेरी जिज्ञासा ने आंसुओं को थोड़े
समय को पी लिया। जिज्ञासा थी कि प्राण कैसे निकलते हैं?चाहती थी जितने समय तक मैं इन्हें देख सकूँ देखती रहूँ। मेरे देखते- देखते
मुंह की मांपेशियाँ भी लचीली हो गईं। खुला मुंह कुछ कम लगा। मैंने उसे घीरे से बंद
करने की कोशिश की,बंद हो गया। पूर्ण विशवास हो गया कि प्राण
निकलने की क्रिया गतिशील है। अब आँखें
नहीं खुलेंगी। नाक में भी मैंने भारी मन से रुई लगा दी। मन अस्थिर हो उठा सोच -सोचकर
अब किसके कंधे पर माथा टिका कर सुकून
पाऊँगी।
अजीब सी दहशत मेरे अंग अंग में समाने लगी। किससे
कहती मन के डर! तभी पास में रखी डायरी दिखाई दे गई—उँगलियों ने कलम थाम ली----
‘छोड़ गए मुझे । खुद भी मुक्त हो गए –मुझे भी
मुक्त कर दिया। लेकिन मेरी यह मुक्ति किस काम की जिसकी कोई मंजिल नहीं।
मैंने अपने सारे आंसू तुम्हारे नाम कर दिए हैं।
थोड़ी देर में तुम मुझसे छीन लिए जाओगे। तैयारी चल रही है—कानाफूसी हो रही है।
घूपबत्ती –गायत्रीमंत्र की गूंज में सब समय तुम
मेरे सामने रहोगे। तुम्हारे पास ही खड़ी हूँ। ज्यादा से ज्यादा तुम्हारा रूप अपने
में समा लेना चाहती हूँ।
दिल से दिल तो नहीं मिला सकती ,तुमने दिल की धड़कनें जो बंद कर ली हैं। हाँ ,तुम्हें
अपने अंतर में बसा जरूर रही हूँ।
जहां जाऊँगी ---तुम मेरे साथ।
*
दरवाजे पर आहट हुई ,तंद्रा
टूटी साथ ही मेरी कलम भी चलते चलते लड़खड़ा गई। सिर उठाकर देखा-सोना खड़ा है और उसके
पीछे उसका दोस्त।
-माँ –पापा ---। पापा को ले जाना है। बड़ी कठिनाई से
आवाज निकल रही थी।
-कहाँ---?
-ताबूत आ गया है उसमें रखे जाएंगे।
-लेकिन अभी तो शरीर गरम है।
-डॉक्टर ने कहा है –तब भी रखना होगा।
अब मैं क्या कहती। लाचार निगाहों से इनकी ओर देखने
लगी । पिछले कुछ माह से जिनकी मैंने बच्चे की तरह देखभाल की उसी को छीनने कुछ हाथ
आगे बढ़ते दिखाई दिए। 2-3 आदमी इन्हें उठाकर ले जाने लगे। मैंने यमदूत तो नहीं देखे
पर वे जरूर मुझे यमदूत लगे। ओह! इतने कठोर—इतने हृदयहीन।
ताबूत को देखते ही मैं बिलख पड़ी-
-अरे उसमें चादर तो बिछाओ---पापा के कुछ चुभ गया तो
और ये मोटी चादर ओढ़ा दो। उसके अंदर ठंड है। ये ड्राइंग रूम में जैसे ही उसके अंदर लेटे, कमरा छोड़ कर इनके सिरहाने ही बैठ गई। छू नहीं सकती थी पर देख तो सकती थी।
शीशायघर में लेटे चेहरे की सुंदरता कैसे भी कम नहीं हुई थी। बंद आँखें थी पर बहुत
कुछ बोलती नजर आ रही थीं। अगरबत्ती की सुगंध ,फूलों की महक
और रामधुन के बीच लगता –ये अभी बोलेंगे ‘सुधा’---। कभी लगता ,इनका बदन हिल रहा है।
सारी रात इनको ताबूत में ही रखना था ताकि रिश्तेदार
और बच्चे अंतिम बार देख सकें।
जैसे जैसे रात गहराई ,मेरे अंदर का अंधेरा भी गहराने लगा और विश्वास होने लगा –अब ये शीशाई
ताबूत से बाहर कभी नहीं आएंगे। तब भी घूम घूमकर इनको देखती—कैसे लग रहे हैं!कैसे
हैं?मगर कब तक---।
आत्मा परमात्मा में विलीन हो चुकी थी । पार्थिव
शरीर मिट्टी में मिलने वाला था। हर तरह से मेरा प्रिय मुझसे छीन लिया गया था। सुबह
सजी सजाई अर्थी के साथ मैं लुटी-लुटी सी कुछ दूरी तक छोड़ने गई—अलविदा जो कहना था। उससे आगे जाने
की शक्ति नहीं रही।
जिस समय मेरा जीवन साथी पार्किंसन जैसी भयानक
बीमारी से जूझते अशक्त हो रहा था उस समय भगवान मेरी परीक्षा ले रहा था। उस समय
मेरे बच्चे मेरी शक्ति बन कर उभरे। पूरे परिवार ने तन -मन -धन से हर चुनौती को
स्वीकार किया और उनका कष्टों को दूर करने,उनके चेहरे पर मुस्कान के फूल खिलाने का भरसक
प्रयत्न किया।कभी सफलता मिली तो कभी असफलता पर अंतिम पल तक हम अपने से नहीं हारे
---भगवान से हार गए। शायद नियति यही है।
समाप्त