मेरी कहानियाँ

मेरी कहानियाँ
आर्टिस्ट -सुधा भार्गव ,बिना आर्टिस्ट से पूछे इस चित्र का उपयोग अकानून है।

बुधवार, 8 फ़रवरी 2017

कहानी-6


 प्रतिलिपि डॉट कॉम में प्रकाशित  कहानी विद्रोहिणी -2016
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विद्रोहिणी





















पोस्टकार्ड हाथ में आते ही मैं झल्ला उठी –श्रुति तूने 80 वर्ष पार कर लिए मगर गुल खिलाने से बाज नहीं आती ।
 अपने पर भरसक काबू करते हुए मैंने पढ़ा - 

हमारी पूज्य माता जी श्रुति देवी जीते जी अपना मरण दिवस मनाना चाहती हैं । इसलिए शीघ्र ही ठीक  समय पर पहुँचकर शोक सभा में सम्मिलित होने का कष्ट कीजिये ।
आपकी उपस्थिति अनिवार्य है ।
विनीत
सुपुत्र गंगा राम

-वाह रे गंगा राम !जीते जी माँ  को गंगा में बहा दिया । मगर सुपुत्र भी क्या करे !दुनिया को अपने इशारों  पर चलाने वाली के आगे अच्छे-अच्छे पानी भरने लगते हैं फिर उसकी तो बिसात क्या ! कहने को तो वह मेरी एकमात्र अंतरंग सहेली है पर कब क्या उसके दिमाग में चल जाए मैं तो क्या भगवान भी नहीं बता सकता। मैं बड़बड़ाने लगी--

आज 21 तो हो ही गई ,25 अक्तूबर को शोक सभा का दिन नियत है । कैसा शोकदिवस ,केवल कुराफाती बातें । जाना तो है ही । पूना से दिल्ली का रास्ता है भी बड़ा लंबा –सोचते –सोचते अटैची में कपड़े लगाने बैठ गई । बहू ने 23अक्तूबर का टिकट मेरे हाथों में थमा दिया । वह भी मेरी इस सखी से परिचित थी। उसकी दृष्टि से तो वह पुरानी ,सदी –गली परम्पराओं  को तोड़ने वाली एक निडर व साहसी महिला है ।

अकेला सफर ,ट्रेन दनदनाती अपने गंतव्य स्थान की ओर बढ़ रही थी । पर मैं इस सबसे  बेखबर बहुत दूर एक ऐसी विद्रोह भरी दुनिया में जा चुकी थी जो श्रुति की निडरता और साहस भरे  कारनामों से भरी पड़ी थी। ।
श्रुति के  घर में लड़कियों का अकाल था । सो उसकी परवरिश लड़कों की तरह हुई ।अपने को उनसे किसी कीमत पर कम समझने को तैयार न थी । दूसरे क्या कहेंगे ?यह सोचना तो उसके लिए टेढ़ी खीर थी।
वह अक्सर दुमंजिले पर बने कमरे की खिड़की से बाहर का नजारा देखा करती थी । कई दिन से हमारे कालिज के शहजादे उधर के चक्कर लगा रहे थे । एक दिन एक शहजादे ने अपनी सोने की अंगूठी कागज में लपेटकर खिड़की के अंदर फेंकने की कोशिश की और उसे सफलता भी मिल गई। वह यह सोच सोचकर दीवाना हुआ जा रहा था कि अंगूठी श्रुति को जरूर मिल गई होगी और जबाब आता ही होगा।  पर अंगूठी श्रुति को  नहीं मिली। हाँ, वह एक अंगूठी अपनी माँ की अवश्य पहने रहा करती थी। कालिज में आते –जाते मूर्ख शहजादा समझ बैठा कि वह अंगूठी उसी की है । वह कॉलेज में उसे एक पुर्जा थमाकर चला गया । 
लिखा था –
प्रिय,
तुमने अंगूठी कबूल कर ली पर उत्तर नहीं दिया । उत्तर में मुझे भी तुम्हारी अंगूठी चाहिए ।
कमल
श्रुति गुस्से से थरथर काँपने लगी और बोली अब चखाऊंगी बच्चू को मजा ।

घर पहुंचते ही अपने पिता को वह कागज का टुकड़ा थमा दिया और बोली –प्रिंसपल के लड़के ने मुझे यह कागज दिया है और समझता है कि मैंने उसकी दी हुई अंगूठी पहन रखी है । देखिए यह रही अंगूठी । यह तो अम्मा की है । न जाने कब  से इसे पहने हुई हूँ । बस आप इस कागज को लेकर तुरंत प्रिंसपल साहब के पास जाइए। उनका लड़का अपने को समझता क्या है !
उसके पिता श्री अपनी बेटी का विश्वास करते थे तभी तो जमाने के देखते हुए काफी छूट दे रखी थी । चाहे किसी दोस्त के जाएँ या ऑफिस में बैठें उसे अपने साथ रखना चाहते थे ताकि सबसे मिलना जुलना सीखे ।
शाम होते ही उसके पिता जी प्रिंसपल साहब से मिलने चल दिये।
दूसरे दिन श्रुति हँस –हँसकर मुझे बता रही थी –आ गई अक्ल ठिकाने। जैसे ही पिताजी ने प्रिन्सिपल साहब को खत दिया ,उन्होंने एक मिनट तो उसे पढ़ा –फिर तो ---फिर तो शर्म से गड़ गए । बोले –शर्मा जी मैं अपने बेटे की तरफ से माफी मांगता हूँ ।
-बच्चों से कभी –कभी गलतियाँ हो ही जाती हैं , बस आप उसे समझा दीजिएगा । पिता जी ने बड़ी सरलता से कह दिया । उन्हें एक दो बातें तो शहजादे को सुना देनी चाहिए थीं इतना तो हक बनता था न मंगला ।

मुझे तो उसकी बातें याद करके हंसी ही आ रही है । उसका वश चलता तो डंडा लेकर प्रिंसपाल के बेटे कमल के पीछे दौड़ पड़ती । लेकिन एक तरह से उसने ठीक ही किया । गलतफहमियाँ दूर हो गईं वरना उसी को उनका शिकार बनना पड़ता ।
मेरी स्मृतियों की खिड़की बंद होने का नाम ही नहीं ले रही थी । बालसखी के शरारत भरे अंदाज से आँखों के कोर मुस्करा उठे । यह उन दिनों की बात है जब वह आगरे पढ़ने चली गई थी और मेरे पिता जी का ट्रांसफर नैनीताल हो गया था।  उसके यहाँ पोस्ट आफिस से डाक लाने का काम एक  व्यक्ति के सुपुर्द रहता था । एक बार वह छुट्टियों में आगरे से घर गई । सुबह  के समय पिता के  पास बैठी चिट्ठियों का इंतजार कर रही थी ताकि हिन्दी पत्रों के मामले में अपने पिता की सहायता कर सके। उन्हें पढ़कर सुना सके।अंकल को उर्दू और अँग्रेजी तो खूब आती थी पर हिन्दी में कच्चे थे। एक कर्मचारी ने डाक लेकर प्रवेश किया। मेज तक आते –आते उसने श्रुति को देख 3-4 बार एक आँख खोली –बंद की – खोली –बंद की । भला श्रुति कैसे सहन कर पाती यह बदतमीजी । जैसे ही उस कर्मचारी ने डाक उसके पिताजी के हाथों थमाई ,वह उस की तरफ इशारा करते हुए बोली –
-पिताजी क्या ये नए हैं ?
-हाँ बेटा ।
-इनकी आँख में कोई बीमारी है क्या ?
-क्यों ?
-दरवाजे में घुसने के बाद ये अपनी आँख तीन- चार बार मिचमिचा चुके हैं ।
पिताजी ने त्यौरियाँ चढ़ाते ऊपर की ओर देखा।
-नहीं बाबूजी ,कोई बात नहीं है ।
बेचारा भागा दुम दबाकर ।

उसके पेट में भला यह बात कैसे पचती। दूसरे दिन ही  सारा वाक्या लिखकर श्रुति ने मुझे भेजा। मैं उसके इसी मसखरेपन पर तो मरती थी । एक बात मैं अच्छी तरह समझ गई थी मेरी सहेली पुरुषों के कुत्सित विचारों की बाढ़ को रोकने में पूर्ण सक्षम है । यदि उस जैसी महिलाओं का जन्म होने लगे तो मर्दानगी और यौन शोषण द्वारा मौज मस्ती करने वालों का खात्मा हो जाए ।
उसके साहस का सिक्का तो हर जगह चलता था। । उसको जब लड़के वाले देखने आए तो उसके पिताजी ने पूछा –बेटी क्या लड़का तुम्हें पसंद है ?
उसने खटाक से उत्तर दिया –लड़के ने मुझ समेत तीन लड़कियां देखी हैं । मैं पहला लड़का देखकर ही हाँ –ना कैसे कर सकती हूँ ?
वैसे उसे लड़का पसंद था पर नहले पर दहला डालना न भूली । 

समय का चक्र बहुत तेजी से घूमता रहा । शादी के बाद हम अपनी –अपनी गृहस्थी में रम गए पर पत्रव्यवहार बंद न हुआ । संयोग ऐसा होता कि मिलते भी रहते । 25 वर्ष पहले उससे कलकत्ता मिलना हुआ था । उस समय उसकी लड़की नेशनल मेडिकल कोलिज में पढ़ रही थी और बेटा बारहवीं क्लास में।  दोनों बच्चों के कमरे अलग –अलग थे । हॉस्टल की तरह कमरे ही में जरूरत पड़ने पर खाना पहुँच जाता ताकि पढ़ाई में बाधा न हो ।
मैं कुछ देर ही बैठी थी कि श्रुति चाय बनाने को उठने लगी । मैंने उसे बैठाते हुए कहा –अरे कहाँ जा रही है ?अब तो बेटी भी बड़ी हो गई है ,वह चाय बना देगी ।
-मंगला ,उसकी बहुत  पढ़ाई है । लड़की डाक्टर ,इंजीनियर भी बने और घर का काम भी करे इससे तो वह दोहरे बोझ के दब जाएगी ।यहीं तो हम गलती कर बैठते हैं। बेटे –बेटी में अंतर समझते हैं। बेटे को प्रधानता और सुविधाएं देने से बेटी गौण समझी जाने लगती है । यही कारण है कि आगे जाकर इसकी जड़ें इतनी मजबूत हो जाती हैं कि औरत दोयम के चौराहे पर खड़ी मिलती है ।
-मेरी  बेटी तो अपने भाई के कपड़े प्रेस करती है ,जूतों पर पॉलिश करती है । पढ़ने में भी कम नहीं।  
-उस पर मेहनत तो पड़ती है । शारीरिक परिश्रम की एक सीमा होती है। वह पढ़े भी  ,घर का काम भी उसके खाते में है । भाई –बहन, माँ –बाप की सेवा भी करे ताकि शादी बाद कुशल गृहिणी कहलाए।  । अरे ये सब औरत को दबाने की बातें हैं । बहन ही क्यों करे !भाई भी तो कर सकता है 
-तू ठीक कह रही है । देख न ,मैं नौकरी करते हुए सारा घर भी देखती थी । ये तो टूर पर रहते थे।  बच्चों की सारी ज़िम्मेदारी मेरी  थी । रात –रात तनाव के कारण जागती रहती । नींद की गोली लेनी पड़ती थी । इसी कारण तो कम उम्र में ही मुझे ब्लडप्रेशर हो गया ।
इतने में श्रुति  की बेटी आई । बड़े  प्रेम से बातें कीं और मिलकर अपने कमरे में चली गई । सहेली के विचारों ने हमेशा के लिए मुझपर अपनी छाप छोड़ दी ।

दूसरे दिन अहोई अष्टमी थी । उसकी बहू और पोती भी बंबई से आ गए । दो वर्ष की प्यारी सी पोती पतली सी पायल पहने रुनझुन करती घर में घूमा करती ।
-कल तो हम दोनों के साथ इसकी माँ भी अष्टमी का उपवास करेगी । अपनी  पोती पर प्यार उड़ेलते वह बोली ।
-बेटी की माँ ! वर्षों से प्रथा चली आ रही है लड़के की माँ ही उसकी मंगलकामना के लिए यह उपवास करती है और शाम को अहोई माँ की पूजा कर व्रत तोड़ती है ।
-लड़की ने ही ऐसा क्या पाप किया है कि माँ उसका सुख न चाहे । ईश्वर के दरबार में तो सब बराबर हैं।  श्रुति भड़क उठी ।
ईश्वर का दरबार तो मैंने नहीं देखा पर श्रुति के दरबार में बैठी –बैठी मेरे विचार जरूर पलटा खा रहे थे ।
अचानक रेल ने ज़ोर से सीटी दी और मैं विद्रोह की रोमांचक दुनिया से बाहर निकली पर आज भी तो मैं वही फँसने जा रही हूँ उसी हुल्लड़बाज  के घर! उसके जीतेजी उसी के मरने  का शोक मनाने।  ऐसा न कभी सुना और न देखा । पर वह जो दिखा दे वह भी कम ।
अकेला सफर ,रात के अंधकार में ट्रेन दनदनाती अपने गंतव्य स्थान की ओर बढ़ रही है । मन की दशा बड़ी विचित्र --सोचते –सोचते प्रगाढ़ निद्रा में लीन हो गई ।
*
पौ फटते ही मेरी नींद खुल गई । कुछ घंटों के बाद दिल्ली पहुँचने वाली थी । स्टेशन पर उसका बेटा लेने आया । रास्ते भर सच और झूठ की कशमकश में हम खामोश से बैठे रहे । घर में घुसते ही श्रुति ने मुझे गले लगा लिया और ज़ोर –ज़ोर से रोने लगी ।
मैं अपनी सहेली की ठिठोली समझ गई ।
-इतनी ज़ोर से रो रही है –यह नाटक काहे का ---।
-क्यों !शोक तो ऐसे ही मनाया जाता है । श्रुति हंस पड़ी पर मैं अंदर ही अंदर खीज रही थी ।
-अच्छा यह बता ,अब तूने यह क्या नई रीति शुरू कर दी ?
-मंगला ,एक रात मैंने सोचा – मेरे मरने के बाद न जाने कोई ठीक से पूजा पाठ ,दान दक्षिणा करेगा भी या नहीं । इसी तनाव को दूर करने के लिए मैंने शोक दिवस के कार्ड छपवा दिये । मैं अपने काम खुद ही निबटा दूँ तो अच्छा रहेगा । अब क्या करना है –बताती जा --वरना मुझसे शिकायत रहेगी, यह नहीं किया –वह नहीं किया।
मैं उस झांसी की रानी को आँखें फाड़े देखती रही और कर भी क्या सकती थी।
दूसरे दिन आमंत्रित लोग एकत्र हुए । घर में रामायण का पाठ व कीर्तन हुआ। ईश्वर से श्रुति को अपने चरणों में जगह देने की प्रार्थना की गई । पहले पंडितों को भोजन कराकर दान –दक्षिणा दी गई। तत्पश्चात सबको भोजन कराया । शाम को महापंडित जी का प्रवचन हुआ । उस समय श्रुति के बेटे-बेटियाँ अपने परिवार सहित आगे ही बैठे थे परंतु मध्य में श्रुति गंभीर मुद्रा में विराजमान थी । यह भी उसकी नाटक बाजी ही थी । स्कूल के जमाने की अभिनय प्रतिभा का खूब उपयोग हो रहा था ।
मित्रों ,रिशतेदारों ने उसका खूब गुणगान किया । वैसे भी विनोदी प्रकृति के कारण दूसरों का दिल जीतना उसके बाएँ हाथ का खेल है । इस तरह राजी खुशी शोक सभा समाप्त हुई। या कहो हास्य सभा समाप्त हुई।
जिसने भी सुना ,एक महिला जीते जी अपने मरने की रस्में निबाहना चाहती है दौड़ा चला आया।  उस अनोखी को देखने वालों की भीड़ लग गई। श्रुति का आदेश था मृतक भोज भंडारे से कोई भूखा न जाए । यह रस्म निभाने का यदि कोई उससे कारण पूछता तो उसके पास एक ही उत्तर रहता –न जाने ऊपर वाले का कब बुलावा आ जाए ,सो मैंने सोचा काल करै सो आज कर ,आज करै सो अब।  और फिर ----उसका  चिरपरिचित अट्ठहास  गूंजने लगता ।
ऐसा निराला संसार है विद्रोहिणी का । न जाने कब क्रांति के स्वर उभर पड़ें
समाप्त   



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