जन्म -8मार्च,2017
आज मैंने ज़िंदगी के 75 वर्ष पूरे कर लिए हैं। बड़ी सुबह ही क्लिक -क्लिक की आवाज से नींद टूट गई। शुभकामनाओं का तांता लगा हुआ था। किसी की आवाज सुनाई दी तो किसी के शब्द दिखाई दिए। कुछ ने फेस बुक पर लंबी उम्र और खुशहाल जीवन की कामना करते हुए उसकी वॉल पर वाक्य चिपका दिए।
सब एक
ही बात पूछते थे –आज किस तरह से अपना जन्मदिन मना रही हो?मेरा एक ही जबाब होता-बिना बच्चों के क्या जन्मदिन। दो तो बाहर ही हैं। जब
एक साथ इखट्टे होंगे तभी कुछ होगा।
बेटी का
फोन आया –“माँ हैपी बर्थडे । शाम को क्या कर रही हो?”
“करना
क्या है!शाम को रोजाना की तरह सोनू के यहाँ
खाना खाने जाऊँगी। हाँ शाम को जरूर
अपने मित्रों को मिठाई खिलाऊंगी। तुम्हारी भाभी से 15 मित्रों के लिए मिठाई लाने को कह
देती हूँ। वह बाजार गई हुई है।”
बहू को फोन खटखटाया –“तुम कहाँ हो?कब तक आओगी?”
“मुझे
आने में देर लगेगी। बच्चे भी साथ है। कोई बात है क्या?”
“मुझे
अपने दोस्तों के लिए मिठाई चाहिए। सड़क पर इतनी भीड़ है कि उसे पार करने में ही
पसीना आने लगता है। तुम लौटते समय ले आना। पाँच बजे तक मैं नीचे पार्क में जाऊँगी।
वहीं सब इखट्टे होंगे।”
“मैं तब
तक घर आ जाऊँगी।”
शाम के
पाँच बजने पर छोटी बहू जब लौटकर नहीं आई
तो मैं बेचैन हो उठी।
“कितनी
और देर लगेगी आने में?”मैंने झुंझलाते हुए फोन पर कहा।
“बस आ
रही हूँ।”
“मैं
तैयार हूँ। नीचे आ जाऊँ!”
“नहीं –नहीं
आप नीचे नहीं आइए । मैं फोन करूं तब आइएगा।”
मुझे बड़ा
अजीब सा लगा। समझ नहीं आया कि ऐसे क्या काम आन पड़े कि सुबह से शाम हो गई। बच्चे भी
परेशान हो गए होंगे।
तभी यू॰के॰ से बड़ी बहू का फोन आ गया- “मम्मी जी हैपी बर्थडे!क्या कर रही हैं?”
“कर क्या
रही हूँ!अभी तो तुम्हारी दौरानी के आने का
इंतजार कर रही हूँ। कहा था 5बजे तक कुछ मिठाई लाकर दे दो। पाँच बजे आने को कह रही
थी। अब साढ़े पाँच बजने वाले हैं। मुझे मालूम होता इतनी देर लग
जाएगी तो मैं ही लाने का कुछ जुगाड़ करती।
मुश्किल से एक घंटे तो हम दोस्त पार्क में बैठते हैं। देर होने से आधे तो चले ही
जाएँगे।अच्छा फोन बंद करती हूँ। अभी उसको ही फोन लगाती हूँ। न जाने कहाँ अटक गई?”
मैंने गुस्से
में छोटी बहू को फोन कर ही डाला-“तुम अब न
लाओ । मैं नीचे जा रही हूँ। आज उनको ड्राई फ्रूट्स खिला दूँगी। मिठाई कल हो जाएगी।”
“अरे
नहीं,दो मिनट रुकिए मैं कुछ करती हूँ।मिठाई तो आज ही शोभा देगी।”
बहू की
आवाज में परेशानी घुली हुई थी। मेरा गुस्सा मोम की तरह पिघल पिघल बहने लगा।
इस बार मोबाइल
फिर बज उठा। बेटे की आवाज सुन चौंक पड़ी।
“माँ,मैं आ रहा हू। घर
पर हो न।’’
“अरे इस
समय तू क्यों आ रहा है। मैं नीचे जा रही हूँ। घूमने का समय हो गया है।”
“नीचे तो
रोज ही जाती रहती हो ---आज रहने दो।”
“अच्छा
आजा।” मैंने सोचा ,बिना बहू और बच्चों के घर में उकता गया होगा।
बेटा आया। बोला-“माँ कैसी हो?”
“ठीक
हूँ। न जाने तेरी बहू कहाँ रह गई।” मैंने बुझे मन से कहा।
“अभी आती
होगी। इतने मेरे घर चलो।”
“क्यों! वहाँ क्यों चलूँ?”
“माँ,आप घर में पेंट करवाने की कह रही थीं। पेंटिंग वाला आ रहा है। उससे कुछ बातें
करनी हैं। रंग भी पसंद कर लो।”
-मैं क्या रंग पसंद करूँ!तू ही कर ले।वही हो जाएगा।
-ओह माँ चलो तो। दो मिनट ही तो लगेंगे।
-अच्छा चल।
मैं बेटे के घर की तरफ चल दी जो मुश्किल से 10 कदम
की दूरी पर था । बड़े प्यार से वह मेरा हाथ थामें हुआ था।रास्ते भर खिचड़ी पकाती
रही- 75 वर्ष की हो गई तो क्या हुआ!बुढ़ापा मुझसे कोसों दूर हैं। आ भी गया तो क्या हुआ! मेरा क्या बिगाड़ लेगा –मैं तो बेटे
के हाथों पूरी तरह सुरक्षित हूँ।
उसने
अपना दरवाजा खटखटाया। दरवाजे के खुलते ही
अवाक रह गई। मेरी करीब 20-25 सहेलियाँ बैठी
हुई थीं। मित्र तापसी बंगाली में जन्मदिन
का गीत गा रही थी।सब तन्मय हो उसमें खोये हुए थे।
पास ही बहू का बनाया केक मेज पर मुस्कुरा रहा था। सबके प्यार को देख मेरा हृदय भर आया।गाना समाप्त होते ही हैपी बर्थडे से घर गूंज उठा। लगा सबको एक साथ गले लगा लूँ। दिल में तो वे पहले ही बस चुके थे। इसके बाद का हाल तो फोटुयेँ ही बयान कर देंगी।
इस सरप्राइज़
पार्टी की तो मैं कल्पना ही नहीं कर सकती थी। इसका प्रबंध बच्चों और मित्रों ने इस
प्रकार किया कि जिसका जन्मदिन था उसी को पता नहीं।असल में बहू घर से बाहर कहीं नहीं गई थी । उसने बाहर जाने का बहाना किया था ताकि मैं उसके फ्लैट में न पहुँच सकूं और चुपचाप वह पार्टी की तैयारी कर सके । दोनों पोतियों ने भी भाग -भागकर खूब काम किया। मेहमानों से बार -बार खाने की पूछती और जब नन्हें हाथों से उनकी प्लेट में कोई व्यंजन परोसती तो खाने का स्वाद दुगुन हो जाता। मेहमानों को देने वाले बैक गिफ्ट की पैकिंग और सज्जा इन दोनों ने ही की थी। और तो और बड़ी पोती ने तो सबके बीच कालीन पर बैठकर गिटार पर हैपी बर्थडे की बड़ी प्यारी धुन सुनाई। तीन पीढ़ियों का संगम देखते ही बनता था।
आज सबसे बड़ा प्रश्न है कि नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के मध्य बढ़ती खाई को कैसे पाटा जाय?इसके बारे में बहुत कुछ लिखा जा रहा है। मगर ज़्यादातर लोग युवा पीढ़ी से बड़े निराश है। उनके प्रति नकारात्मक सोच की दीवारें इतनी मजबूत हैं कि सकारात्मक सोच वहाँ पनपने ही नहीं पाती। किसी निर्णय पर पहुँचने से पहले समस्या की जड़ों तक जाना जरूरी है। कभी कभी जो दिखाई देता है वह वैसा होता नहीं। यदि लेखनी द्वारा ऐसा साहित्य परोसा जाय जो बुजुर्ग और नई पीढ़ी के मध्य की खाई को भर सकने में सहायक हो तो बहुत ही अच्छा है।
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