मेरी कहानियाँ

मेरी कहानियाँ
आर्टिस्ट -सुधा भार्गव ,बिना आर्टिस्ट से पूछे इस चित्र का उपयोग अकानून है।

बुधवार, 28 जुलाई 2021

प्रकाशित -सेवा समर्पण पत्रिका

 

कहानी 

सुगंधभरी साँसें

सुधा भार्गव 


ससुराल  में घूँघट के बीच पढ़ी –लिखी स्वाति,के रोमांचक अनुभवों की कहानी  

शहनाई बज रही थी ।एक दूसरे की सुगंध भरी साँसों की टकराहट से मन की वीणा के तार झनझना उठे। कमाल और स्वाति ने न जाने कब –कब में एक दूसरे के गले में जयमाला डाल दी । जाली के घूँघट में स्वाति की झलक मिलने से कमाल उसकी ओर टकटकी लगाए हुए था और दुल्हन बनी स्वाति की पलकें लाज के मारे झुकी जा रही थीं। थीं। 

     मनमोहक फूलों की लड़ियों से सजे मंडप में वे फेरों पर बैठने ही वाले थे कि जनमासे से खबर आई – ‘बहू का घूँघट नीचे कर दिया जाए।‘ अपनी बेटी को लड़कों के साथ उच्च शिक्षा दिलवाकर कमलेश्वर बाबू ने आधुनिकता का परिचय दिया था परंतु वे भी इस समय लड़के वालों की इस बेतुकी बात का विरोध न कर सके । यह साबित हो गया कि लड़की का बाप कितना भी धनी हो ,बेटी सरस्वती स्वरूपा हो ,उसे लड़के वालों के आगे सिर झुकाना पड़ता है । 

    स्वाति के पीहर में घूँघट प्रथा नहीं थी । मर्यादा में रहकर उसने अपनी माँ –चाची को बाबा से बातें करते देखा था । हाँ ,गंगा स्नान के कार्तिकी मेले में ग्रामीण महिलाओं का विचित्र एक फुटा घूँघट उसे अच्छे से याद था। उसने झटके से सिर के पल्लू को आगे की ओर खींचा तो उसकी कमर दीखने लगी । सच में वह फूहड़ गंवारिन सी लग रही थी । अग्नि की परिक्रमा करते समय उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह खुद को संभाले या साड़ी को। कभी –कभी तो वह डर जाती अग्निकुंड में आहुति देते –देते वह खुद ही स्वाहा न हो जाए।

     विदा होने के बाद गजभर का घूँघट काढ़े ससुराल की दहलीज पर पैर रखा । महिलाएं देखकर बड़ी खुश !आह कितनी सुसंस्कृत और परम्परावादी बहू है । लज्जा तो उसका गहना है। उसने जब भी कौवे की तरह गर्दन टेढ़ी करके तिरछी आँख से बाहर झाँका ,बहुत सी आँखें उसे घूरती नजर आईं । 

  बहुत पहले  उसने भी तो किसी को घूरा था ! हाँ उछलकर उसे अपना बचपन याद हो आया । वह मुश्किल से छ्ह वर्ष की रही होगी । धोबिन अपनी बहू को लेकर माँ -बाबूजी का आशीर्वाद लेने आई । स्वाति उसे देख बाहर जाते –जाते रुक गई। नीचे झुककर घूँघट में से बहू का मुख देखने की कोशिश करने लगी। हठात ताली पीटती बोली –आह ,देख लिया –मैंने तो देख लिया ।` तमाशगीर आज खुद तमाशा बनी बैठी थी। 

    उसी समय बच्चों का रेला आया –चाची आ गई ---चाची आ गई। धम धम करते धमक पड़े । कोई उसके कंधे पर गिरा ,किसी का पैर उसके बिछुए पर आन पड़ा। पीड़ा से छटपटा गई । इन जंगली बछड़ों पर उसे बहुत गुस्सा आया । उनसे छुटकारा पाने के लिए लंबा से घूँघट डाल लिया । बच्चे समझे –चाची उनसे बात नहीं कर सकती । वे सहमे से लौट गए । नटखट बालिका की तरह दुल्हन स्वाति खिलखिला उठी –अरे !पर्दे में एक तो गुण है । जिसे देखना चाहो देखो ,जिसे खुद को दिखाना हो दिखाओ वरना मुखमंडल के कपाट बंद । 

    कुछ देर में कांकन-जुआ और मुट्ठी खोलने की रस्म होने वाली थी । स्वाति ने कभी हारना न सीखा था । उसने घूँघट पलटकर दोनों हाथ बढ़ा दिये । पर्दे के पीछे से प्रकट होने वाले आत्मविश्वास से भरपूर चेहरे को देखकर घरवाले सकपका गए । वे तो समझे थे बहू दब्बू ,कमजोर और उनके हाथ की कठपुतली होगी। किसी में इतना कहने का साहस न बचा,बहू जरा पल्ला खींच ले । विरोध कपूर की तरह उड़ गया। उसकी शक्तिशाली मुट्ठी को कमल खोल न सका। पानी और घास से भरे तसले में गिराई अंगूठियों को भी उन्होंने ढूंढा । बच्चों की तरह क्रीड़ाएँ की । उनकी उन्मुक्त हंसी से सोच की कालिमा में उजाला भर गया । कमाल के हाथ चांदी की अंगूठी हाथ लगी । स्वाति ने देखा –सोने की अंगूठी उसकी नाजुक अंगुलियों में फंसी है। अलेक्ज़ेंडर द ग्रेट की तरह झूम उठी। 

   दूसरे दिन मुंह दिखाई थी । पूरी बिरादरी आने वाली थी । बनारसी जरी की साड़ी के साथ कुन्दन का सैट पहनाकर उसे खूबसूरत गलीचे पर बैठा दिया। तभी छोटी नन्द ने चुहलबाजी की “भाभी रानी थोड़ा घूँघट कर लो । पट खोलने पर ही माल मिलेगा । चुड़ैल की नजर से भी बच जाओगी ।’’ 

   स्वाति के गुलाबी होठों पर हास्य तिर गया । वह दोनों हाथों से उपहार बटोर रही थी। अचानक मन अटक कर रह गया रवीन्द्रनाथ टैगोर के उस उपन्यास में जिसमें दो दुल्हनें नाव दुर्घटना में बदल गई थीं। अपनी पत्नियों के तलाशने में दूल्हे राजाओं को नानी याद आ गई । दुल्हनों ने न शादी से पहले दूल्हे देखे थे न शादी के समय । उनके मध्य पर्दे की दीवार जो थी । 

    शाम के समय स्वाति कमरे में एकांत पाकर बड़ी राहत का अनुभव कर रही थी । तभी ससुर जी उसके देवर को ढूंढते वहाँ आए ।वह बड़े अदब से खड़ी हो गई और उनको बैठने के लिए कुर्सी दी । बहू के भद्र व्यवहार से वे पुलकित हो उठे।  

    ‘बेटा ,तुमने अपने देवर राम को देखा क्या?”

   “नहीं बाबू जी ।’’ 

   बिना बैठे ही वे तुरंत चल दिए । शायद नई बहू के सामने ज्यादा ठहरना उचित नहीं समझा । इतने में दनदनाती ,जेवरों से लदी-फदी एक सेठानी आई और पूछा –“बहू , तुम किसी से बातें कर रही थीं ?”

   “हाँ ,बाबू जी से बातें कर रही थी।’’ 

   “ससुर से बातें नहीं करते ।’’ बंदूक दागते बोली । 

   “उन्होंने मुझसे जब कुछ पूछा तो उसका उत्तर देना ही था । वरना चुप रहना मेरी बेवकूफी होती या अशिष्टता ।’’ 

   सेठानी अपना सा मुंह लेकर रह गई । 

    थोड़ी देर में देवरजी मिष्ठान –नमकीन सहित चाय लाए । जिठानी जी भी वहाँ आ गईं , उन्होंने चाय शुरू की ही थी कि ससुर जी भी बड़ी प्रसन्नमुद्रा में आ पहुंचे । उन्हें शायद मालूम हो गया था कि देवर जी यहीं है । स्वाति ने एक कप चाय तैयार की और उनसे लेने का आग्रह किया । उनकी आँखों में अथाह प्यार छलका पड़ता था । 

   वे बोले- “पाँच बिटियाँ बिदा करके दो बेटियाँ घर में लाया हूँ । मैं चाहता हूँ सब हँस मिलकर घर में बातें करें ,खाएं –पीयें। घर का एक सदस्य एक कोने में ,दूसरा दूसरे कोने में ,तीसरा बाहर , यह बिखराव-अलगाव मुझसे सहन नहीं होता।’’  

    वे जिठानी जी की तरफ मुड़े –“बड़ी बहू ,तुमने बहुत पर्दा कर लिया । अब मैं चाहता हूँ बहुएँ पर्दा न करें ।’’ 

   “लो यह कैसे हो सकता है ?जब पर्दा नहीं करते थे तब कहा गया पर्दा करो । जब आदत पड़ गई तो कहा जा रहा है पर्दा नहीं करो । अब तो हम घूँघट डाल कर ही रहेंगे ।’’ 

   स्वाति जिठानी की बात सुनकर अवाक रह गई । कहने को पर्दा करती थीं परंतु बड़ों के प्रति इतनी कटुता। शालीनता छू तक न गई थी । जिठानी से बहुत छोटी होते हुए भी इतना तो समझती थी कि पर्दे का अर्थ गूंगा बहरा या अंधा होना नहीं अपितु अशिष्टता-अश्लीलता से पलायन करना है। जो पर्दे की ओट में कैंची सी जीभ चलाकर बड़ों को मर्मांतक पीड़ा पहुंचाए उसके लिए पर्दा शब्द ही निरर्थक है । 

    समय की नजाकत को समझते हुए वह उससे तालमेल बैठाने में कुशल थी पर उसने उसी समय ठान लिया कि अवसर पाते ही पर्दे की सड़ी-गली केंचुली को उतार फेंकेगी । 

   वैसे भी अतीत के कुछ पल उसके साथ इस प्रकार बिंध गए थे कि कभी उसे रुलाते ,कभी हँसाते । स्वाति के चचा जी –ताऊ जी एक दूसरे से बहुत कुछ मिलते जुलते थे । एक सी सेहत ,एक सी चाल –ढाल,एक सी आवाज । एक विवाह समारोह में चाची को तिलक करने के लिए रुपयों की आवश्यकता पड़ी ।बस होने लगी चाचा की तलाश ।उधर से ताऊ निकले । घूँघट में कैद चाची ने उन्हें चाचा समझा और  होली उनके पीछे ---अजी सुन रहे हो ----क्या भागे जा रहे हो! ताऊ जी ने झेंपकर अपनी चाल तेज कर दी । हारकर ताऊ जी बोले –दिल्लीवाली मैं हूँ (चाची दिल्ली की रहने वाली थीं)। चाची पर तो घड़ों पानी पड़ गया। इस चूहे –बिल्ली के खेल में दस वर्षीय स्वाति को बड़ा मजा आ रहा था। उस समय तो नहीं समझ सकी कि चाची आधा मुंह क्यों छिपाए रहती हैं पर अब पर्दे के कारण आए तूफान और  टूटी डालियाँ उसे पसंद नहीं थीं । 

    बालसखी सरिया की याद आते ही उसकी आँखें गीली हो जाती । इस  घूँघट के कारण ही तो उसका अंग -अंग झुलस गया था । रोटी सेकते समय चुंदरी में आग लग गई थी और इसका उसे पता ही न लगा । उसका पति वेदा रो –रोकर कसमें खा रहा था –“डॉक्टर साहब मैंने अपनी सरिया को नहीं जलाया ।'' उसकी चीख़ों से दिल दहल जाते। घाव तो ठीक हो गए पर अंगों की कुरूपता ने उसे हमेशा के लिए जख्मी कर दिया । उसकी हालत पागलों की सी हो गई । वह हर आने –जाने वाले को दागी हाथ दिखाती और सिसकने लगती। जब –तब स्वाति के सामने सरिया का चेहरा घूमता रहता ।    

 वह ज्यादा दिन घूँघट जैसे दानव की गिरफ्त में न रह सकी। किसी की भी  सांसें दम तोड़े ,उससे पहले ही उसने दृढ़ता की शलाका अपने हाथों में थाम ली और पर्दे जैसी कुप्रथा को रौंदती ग्रामीण महिलाओं के संसार में रच बस गई । 

समाप्त 

 

      

 

                

 

 

 

रविवार, 30 मई 2021

13-पूछो तो सच

 

 मेरा शिक्षक दिवस


2020 

एक आश्चर्य 

    साथियों कल  शिक्षक दिवस खूब उमंग उत्साह से मनाया होगा । हमारे साथ भी कुछ ऐसा  ही हुआ। सुबह से ही मुबारकबाद के वाट्सएप पर मैसेज आने लगे । बहुतों ने तो एक शब्द  टाइप करने की भी जिल्लत न उठाई और दूसरों से मिले  रगबिरंगे  कार्ड से चिपके  संदेश हमारी ओर धकेल दिये। न किसी के बोल सुने न हम ही किसी से दो बोल बोले। न कोई हमारे यहाँ आया न हम जाकर किसी के गले लगे। गुरू –शिष्य का नाता  धूमिल सा नजर आया। संध्या होते होते जब सारे दिन पर नजर डाली तो टीचर्स डे आधा –अधूरा सा लगने लगा। 

    रात के करीब 10 बजे बत्ती बुझाकर लेटी ही थी कि घंटी बज उठी। इतनी रात गए किसका फोन! हड़बड़ा कर मोबाइल कान से लगाया-

"कौन?"

"अम्मा मैं इनिका, मैं आपके पास आ रही हूँ।"

"इतनी रात में! कल आ जाना।"

"नहीं अम्मा मुझे अभी आना है।"

"अच्छा बेटा आ जाओ,पर अकेले न आना ।"

'ठीक है मैं मम्मी के साथ आ जाऊँगी।'

   इनिका मेरी  सबसे छोटी पोती है। कक्षा 9 में पढ़ती हैं। उसके इंतजार में दरवाजे के पास कुर्सी पर बैठ गई और सोचने लगी –ऐसा क्या काम पड़ गया जो वह आ रही है। दरवाजे पर दस्तक पड़ते ही चटकनी खोली । इनिका और उसकी बड़ी बहन अवनि जो कक्षा 11 की छात्रा है बड़े स्नेह से मेरे लिपट गई और बोली –"अम्मा Happy Teachers Day। मैं खुशी से पागल हो गई। सारे दिन के शिकोशिकवा गलकर पल में बह गए। दूसरे पल ही ऐसा चमत्कार हुआ कि मैं अभिभूत होकर रह गई। मेज पर एक छोटी सी प्यारी सी चॉकलेट केक रखी थी ।मेरी प्रश्न भरी  नजर उठी तो अवनि बोली-"अम्मा यह केक इनिका ने आपके लिए अपने आप  बनाया है। मैंने इनिका को गले से लगा लिया। एक छोटी सी बच्ची के दिमाग में इतनी बड़ी बात ! जो बड़ों -बड़ों से न टकराई।  वह मिठास भरी आवाज में बोली-"अम्मा अब आप फटाफट केक काटो।हम फोटो खींचेंगे।"

    फिर क्या था केक काटी ,मिलमिलकर खाई । हैपी टीचर्स डे की गूंज से रात भी उजास से भर उठी। खुशी के अतिरेक से रात भर न सो सकी। आज कुछ शिक्षक मित्रो को मैंने अपना सुखद अनुभव सुनाया और केक से मुंह मीठा कराके अपनी खुशी का इजहार किया। तो कैसा रहा मेरा शिक्षक दिवस उत्सव!

 

 

मंगलवार, 11 मई 2021

12 -पूछो तो सच

 

 जीवन के सफर में

वर्ष 80  का  प्रवेश द्वार ( 8/3/2021 )



       वर्ष 80 का प्रवेश द्वार मेरे लिए बड़ा रोमांचक अकल्पनीय और सुखद आश्चर्य से भरा सिद्ध हुआ। जिसके कारण कोरोना से तप्त संतप्त हृदय कुछ समय के लिए हरहरा उठे । 

      बड़े बेटे ने कहना शुरू कर दिया था -माँ मार्च तक मेरा घर बन कर तैयार हो जाएगा । बस फिर आपको यहाँ  आना है।  मैंने सोचा उसने इतने शौक से घर बनवाया है। अब वह चाहता है सबसे पहले उसकी माँ घर में प्रवेश करे। स्वाभाविक भी है। 

पहली मार्च से ही उसका फोन आने लगा -"माँ तैयारी कर ली ।"  "काहे की?"

 "मेरे पास आने की।" 

 "अरे तेरे घर आने को क्या तैयारी करूँ!" 

 "तब भी अच्छी -अच्छी ड्रेस रख लो । "

 "बेटा इस कोरोना में  कहीं आना -जाना तो है नहीं। फिर अच्छी ड्रेस का क्या होगा ?" 

 "तब भी रख लो।" 

      मुझे बड़ा अजीब लगा। मैंने बहू को फोन किया -"ऐसे समय में तुम्हारी कहीं पार्टी -वार्टी तो नहीं है। मैं तो एकदम नहीं जाऊँगी।" 

"मम्मी जी कोई पार्टी नहीं है।" 

"तब बेटा क्यों बोल रहा था -अच्छी अच्छी ड्रेस लेकर आना।" 

"आप तो जानती ही हैं घूमते -घूमते ही लोग मिल जाते हैं , सब तो अच्छे -अच्छे कपड़े पहने रहते हैं। फिर आपको तो सब जानते ही हैं। कोई मिलने भी तो घर में आ सकता है।" 

असन्तुष्ट सी मैं चुप हो गई। 

    छोटा बेटा मेरे एपार्टमेंट में ही रहता है। उससे तो रोज ही मिलना ,खाना -पीना चलता रहता है। एक रात घूमता हुआ आया। मेरी  ओर गौर से देखा और हाथ में हाथ लेता बड़ी आत्मीयता से बोला -"माँ किसी चीज की जरूरत तो नहीं।" 

"न --न मुझे कुछ जरूरत नहीं। जब जरूरत होती है तब तो बोल ही देती हूँ। हाँ मेरा आई पैड बड़ा स्लो हो गया है । मैंने तेरे भाई  से कहा था नया खरीदने को।  उसने कोशिश भी की पर क्रोमो शॉप पर था ही नहीं। हो जाएगा उसका भी इंतजाम । मुझे ऐसी कोई जल्दी नहीं।" 

न जाने क्यों उस दिन उसका पूछना -'माँ किसी चीज की जरूरत तो नहीं।' बड़ा अजीब सा लगा। 

      4मार्च को बड़े बेटे का फिर फोन आया -'माँ मैं कल आपको लेने आ रहा हूँ। तैयार  रहना ।'मैंने चार कपड़े रखे कि 2-3 दिन बाद तो आ ही जाऊँगी । रात को सोने ही जा रही थी कि कानपुर से बेटी का फोन आ गया -"माँ जरा दिखाओ तो अटैची में क्या क्या रखा है?" 

    मैंने कपड़ों के बारे में बताया तो बोली -'यह सब नहीं चलेगा । फेस टाइम पर आ जाओ। अपनी अलमारी खोलकर  मुझे दिखाओं।"

    राजधानी की तरह छूक छूक बोलते बता दिया --ये रखो ये रखो ... । और हाँ मैचिंग पर्स और चप्पल भी रख लेना। सोचने के लिए बहुत कुछ छोड़कर वह मजे से सो गई होगी। करीब चार  सूट और दो साड़ियाँ ! मेरा दिमाग भनना गया । दिखाते- दिखाते मेरी  सारी अलमारी अस्तव्यस्त हो गयी । मैं बड़बड़ाती रह गई पर  बेटी की बात को टाल भी न सकी। लगता था बेटे के नहीं किसी शादी में जा रही हूँ।जैसे- तैसे सब सामान जगह पर रखा और थककर सो गई।                   

    दूसरे दिन  अलसाए भाव से मैंने  अटैची लगाई । अपना लैपटॉप ,आई पैड बैग में रख बड़े बेटे -बहू का इंतजार करने लगी। वह मेरे फ्लैट से करीब 10 किलोमीटर पर रहता है। मन में आया भी कि छोटे बेटे को कह  दूँ -वह भी वहाँ आ जाए। फिर सोचा -3-4 दिन बड़े के पास रहने का प्रोग्राम बना कर जा रही हूँ। छोटा भी एक दिन जरूर आकर मिलेगा। फिर उसी के साथ वापस आ जाऊँगी। 

     5मार्च की सुबह मैं बड़े बेटे के घर आ गई।  घर काफी अच्छे से सजाकर रखा था । मेरे तबियत खुश हो गई। कमरों में नई चादरें ,नई क्रॉकरी,,सजावटी चीजों पर धूल का एक कण नहीं।  । बातों  ही बातों में बहू ने बताया "कल सुबह लंच पर सोनू भैया जी शिल्पी और बच्चे भी आएंगे। मुझे बड़ी सुबह ही एक काम से जाना है।" 

"कहाँ ?ऐसा क्या जरूरी काम आन पड़ा कि सुबह  ही निकल जाओगी। सोना को भी लंच पर बुलाया है। कैसे काम होगा।" मैं तुनक पड़ी। 

"आप चिंता न करो माँ सब हो जाएगा।" बेटे की बात पर मैं चुप हो गई। पर मन ही मन कुढ़ रही थी -'कल  ही का  दिन जाने को मिला  । काम टाला भी तो जा सकता था।' 

     बहू अगले दिन सुबह ही निकल गई। मैंने 9 बजे तक उसका इंतजार किया फिर बोली -"बेटा लगता है रचना को लौटने में देरी होगी मैं तो नाश्ता कर लेती हूँ।" बाहर झाँकते बोला -"माँ थोड़ा इंतजार कर लो । आती ही होगी। अनिच्छा से रसोई में ही छोटी मेज के सामने रखी कुर्सी पर  बैठ गई। समय काटने को मीनाक्षी अपनी  सहेली को  फोन  लगा बैठी। तभी मुझे आभास हुआ कोई मुझे पुकार रहा है। मैंने समझा बहू की सहेली है। वह अक्सर आती रहती है। तभी दुबारा आवाज आई माँ --मां । मैंने सिर उठाया रसोई के दरवाजे पर मास्क लगाए बेटी से मिलती जुलती एक  युवती को खड़े देखा। मास्क के कारण पहचान न पा रही थी। बेटी के होने की तो कल्पना ही नहीं कर सकती थी। क्योंकि एक घंटे पहले ही मेरी  उससे बातें हुई थीं -"माँ कानपुर से तुम्हारे पास कब आऊँ?होली से पहले या बाद में ।" 

"बेटा होली के बाद ही आना । तब तक दूसरा वैक्सीन लगे तुम्हें 15 दिन  हो जाएँगे। तुमने ही तो कहा था इम्यूनिटी के लिए 15 दिन इंतजार करना पड़ेगा।" 

"पर माँ होली के तो अभी कई दिन है।" 

"हाँ  यह तो है। पर क्या किया जाए। मजबूरी है।" 

फोन कट गया। 

   मैं बड़ी उलझन में पड़ी हुई थी। जिसने कानपुर से कुछ देर पहले मुझसे बातें की हैं वह मेरे सामने कैसे हो सकती है। सामने खड़ी होने वाली को किसी तरह भी  मेरा मन बेटी मानने को तैयार न था जिससे मिलने को तड़पती रहती हूँ।  जिसकी सुरक्षा की दिन रात कामना करती हूँ । डॉक्टर होने के नाते उसे तो रोज हॉस्पिटल जाना ही पड़ता है।  

        मेरी  मनोस्थिति वह ताड़ गई। वह हंसी --वही जानी पहचानी हंसी मैंने सुनी पर हिली नहीं। वह  मुझे झंझोड़ते बोली -"माँ मैं हूँ तुम्हारी पिंकी।" तब भी मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। वह मेरे  नजदीक सिमट  आई। मैंने उसके हाथों को अपने हाथों में लिया । छू कर विश्वास करना चाहा कि मेरे सामने मेरी बेटी ही है या कोई सपना देख रही हूँ। आश्वस्त होने पर मैंने उसके दोनों हाथ थाम  लिए । चूमे और आँखों से लगा लिए। खुशी के अतिरेक से बच्ची की तरह सिसक पड़ी और गिरने लगे टप -टप आँसू वह भी बेटी की हथेली पर। 'आह मेरे बेटी !अब कुछ दिन मेरे पास रहेगी।' इसकी तसल्ली होते ही मुझे इतनी खुशी मिली इतनी खुशी मिली थी कि उसको बयान करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं। 

     हाँ, अब मेरी आंखेँ और दिमाग तेजी से कम करने लगे। बेटी के पीछे मेरी नातिन भी खड़ी थी। उसके आने की तो सोच ही नहीं सकती थी। कोरोना के कारण लॉ कालिज बंद है। ऑनलाइन पढ़ाई हो रही है । इसी कारण वह अपनी नानी से मिलने आ सकी। मैं उसे देख फूली न समाई।  उसे प्यार से गले लगा लिया।  बेटा भी कनखियों से माँ-बेटी के मिलन को 3गज की दूरी से देख रहा था। मुझे एक साथ असीमित खुशी मिली यह देख उसकी आँखें मुस्कुरा रही थीं।  तब तक न जाने कब -कब में बड़ी बहू ने आकर वीडियो लेना शुरू कर दिया था।  उसने फॅमिली ग्रुप वाट्एप पर पोस्ट भी कर दिया।मैंने  वीडियो  देखा - उफ कैसी  सुबकती रोती हैरान सी । झट से मैंने आँसू कसकर पोंछ लिए। असल में सुबह बड़ी बहू बेटी को लेने एयरपोर्ट ही गई थी। मुझ बुद्धू को असलियत का जरा भी आभास न हुआ। 

   तभी छोटे बेटे ने घर में प्रवेश किया -"माँ हमने आपका जन्मदिन आज से ही मनाना शुरू कर दिया है । कैसी रही शुरुआत!लो अपना गिफ्ट । अरे जल्दी से खोलो । अच्छा मैं ही खोल देता हूँ। " 

"अरे नहीं हम तीनों मिलकर देंगे।" पीछे से बेटी चिल्लाई। कुछ ही पलों में एपल का नया आइ पैड मेरे हाथ में था। तब मुझे मालूम पड़ा क्यों उस दिन सोना ने पूछा था -माँ किसी चीज की जरूरत तो नहीं। 

    अंग अंग से मेरे खुशी टपकने लगी । पुलकित हो यही कहते बना -"तुम शैतानों की टोली --तुम क्या क्या प्लान बना डालते हो मुझे कानोंकान खबर नहीं होती । लेकिन तुम्हारे दिये एक के बाद एक आश्चर्य जब अपने दोस्तों को सुनाती हूँ तो वे भी आश्चर्य में पड़ जाते हैं।"

"अरे माँ अभी तो देखती जाओ ,आगे होता है क्या क्या।" 

"क्या मतलब?" 

"मतलब यह कि कल 7--फिर  8मार्च-- । आपका जन्मदिन मनाते ही रहेंगे ।" छोटा बोला।  

"अब तो मम्मी जी को बता दीजिये।क्यों उन्हें परेशान करते हैं!" छोटी बहू बोली । 

"क्या बता दूँ कुछ बताने को है ही नहीं।उसने नटखटपने से कहा।" 

"उफ! अच्छा मैं बताती हूँ।7- 8मार्च को हम सब मेरियट होटल में रहेंगे।आप  एक अटैची वहाँ के लिए लगा लीजिये।"  

"ओहो ,इसलिए साड़ी -सूट लाने को कहा जा रहा था। तुम लोगों को मेरा इतना ख्याल!" अनायास ममता हिलोरें लेने लगी।   साथ ही  मन का एक कोना फीका- फीका सा बोल पड़ा -"बेटा कोरोना के समय होटल !"

"कोई भीड़ नहीं हैं । अगर कुछ गड़बड़ देखेंगे तो चले आएंगे।वैसे होटल में बहुत सावधानी से कोरोना के नियमों का पालन किया जा रहा है।"

 दिल को तसल्ली तो हुई पर मुझे पहले पता होता तो साफ मना कर देती। 

     उम्र का  सफर  तय करते हुये 80 में प्रवेश करने वाली थी।  दो दिन मास्क और दूरी का ध्यान रखते हुये  आशा के विपरीत रिश्तों को महकने का मौका मिला। कोरोना के कारण जो कदम एक दम रुक गए थे  उनको गति मिली। दिल के तारों को कैमरे में कैद करने की निराली कोशिश थी । हंसी मज़ाक ,बेफिक्री के चंद घंटों ने  न  जाने कितनी उम्र बढ़ा दी । 

     अप्रैल में ही फिर कोरोना का मिजाज गरम हो गया और हम घर में बंद से ही हैं । पर मार्च की यादों ने अपनी खुशबू नहीं छोड़ी है। रहरह कर उसका झोंका आता है और हम उसमें डूब से जाते हैं।


शुक्रवार, 21 अगस्त 2020

कहानी -अनोखी परंपरा

 


अनोखी परंपरा

सुधा भार्गव

    पति के सेवानिवृत होने के बाद रुकमनी ने बड़े शौक से विशाल बंगला बनवाया । साथ मैं बहू बेटे रहते थे। रिश्तों में आनंदधारा अविरल बहती थी। मुश्किल से 4-5 वर्ष ही उसने इस भवन मेँ बिताए होंगे कि पति की हृदयगति रुक गयी। वे इस संसार से विदा हो गए। वह रोती कलपती रही पर विधाता के कठोर नियम के आगे तो सिर झुके रहते हैं। उसे बैराग्य सा हो गया। बहू बेटे के जिम्मे घर गृहस्थी छोड़कर उसने गाँव मेँ बसने का इरादा कर लिया।

    गाँव मेँ उसके वृद्ध सास –ससुर रहते थे । बेटे के गम मेँ वे जीते जी मृतक समान हो गए थे । उसने उनके लिए शक्ति पुंज बनने का निश्चय कर लिया।

    बेटे ने बहुत समझाया –माँ,तुम शहर की   सुख सुविधा की आदी हो। गाँव के कष्टमय जीवन की झटकी झेल न पाओगी।

     उसका एक ही उत्तर था –जब तेरे पिता जी के माँ –बाप देहात मेँ रह सकते हैं तो तेरी माँ भी वहाँ रह लेगी। वे बड़े शौक से मुझे अपने घर में ब्याह  कर लाए थे । आज उन्हें मेरी जरूरत है । बेटे के पास कहने के लिए कुछ न था । उसे माँ की बात उचित ही प्रतीत हुई ।

     सास –ससुर के बुढ़ापे की लाठी बनकर रुकमनी गाँव के छोटे से मगर पक्के मकान मेँ रहने लगी । वृद्ध दंपति अपने व्यथित हृदय उसके सामने उड़ेलकर संतोष कर लेते । कभी अपने दुर्भाग्य पर आँसू बहाते,कभी अतीत की यादों मेँ खोकर मुस्कुरा देते । बेटे की मौत का रक्तरंजित खंजर उनके हृदय मेँ घुस चुका था । उसकी अथाह वेदना ने उन्हें गूंगा सा कर दिया था । माँ –बाप के जीते जी उनकी बेटा चला जाए इससे बढ़कर दुख और क्या हो सकता है। देखते ही देखते उनकी आँखों का तारा दूर गगन मेँ न जाने कहाँ छिप गया । अंदर ही अंदर वे घुलने लगे और एक दिन उनका पार्थिव शरीर भी मिट्टी मेँ मिल गया।

    अकेली पड़ जाने के कारण रुकमनी को पुन: शहर जाना पड़ा । पिछले दिनों उसके बेटे ने अच्छी ख़ासी तरक्की कर ली थी। बहू उसका पूरा फायदा उठा रही थी ।अधिक आराम और बेफिक्री की ज़िंदगी के कारण उसे अनेकों रोगों ने घेर लिया । जोड़ों के दर्द के कारण  उठना –बैठना भी तकलीफदेह था । 

    बेटा आफिस से आकर चहकता –माँ मेरे पास आकर बैठो ,अरे वैशाली ,हमारे लिए चाय बना दो और हाँ !सूजी के चीले बन जाएँ तो अच्छा है ।

       रुकमानी बहू की मदद के लिए उठना चाहकर भी न उठ पाती –अरे माँ कहाँ चलीं ?बबलू हाथ पकड़कर बैठा लेता । उसके दिमाग में एक ही बात छाई थी कि दादा –दादी के लिए  माँ ने अपना सुख छोड़ दिया अब वैशाली की बारी है।  वह सासु माँ का पूरा  –पूरा ध्यान रखे में दो –दो नौकर के होते हुए भी वैशाली को उनसे व्यवस्थित रूप से काम लेना नहीं आता था। वह सारा काम उनपर छोड़ कर सैर  सपाटे ,फोन करने में व्यस्त हो जाती । दिमाग झूठी शान का भँवरा हो गया था । अपने हाथ से एक गिलास पानी देने भी अपनी तौहीन समझती । उसकी दृष्टि से ट्रे लेकर किसी के सामने चाय –नाश्ता आदि पेश करना नौकरों का काम था । लेकिन पति के सामने उसकी एक न चलती ।

     पिछले दो दिनों से रुकमनी को बुखार था । लापरवाही से तिल का ताड़ बन गया और उसने  खटिया पकड़ ली । सद्व्यवहार के कारण रुकमनी की पड़ोसिनों से खूब बनती थी । उसकी बीमारी की खबर मिलते ही शुभ चिंतकों का तांता लग गया । दरवाजा खोलते –खोलते और चाय-पानी की पूछते –पूछते वैशाली की तो कमर ही दुखने लगी । उसके दोनों बेटे बाहर नैनीताल में पढ़ रहे थे,मियां –बीबी अकेले । चाहे जब घूमो ,चाहे जहां जाओ और टी॰ वी ॰ देखते –देखते सो जाओ ! आजादी ही आजादी !सास के आने से उसकी दिनचर्या में बाधा पड़ गई और वह बौखला गई।

      उस दिन वैशाली के पैरों में बड़ा दर्द था। अकस्मात दरवाजे की घंटी बजी। लंगड़ाते हुए उसने दरवाजा खोला

   अरे मौसी जी आप ,आइये—आइये। “  

   “कैसी है बहन रुकमनी ?”

   पहले से ठीक है “

  “तुम्हारा स्वास्थ्य कैसा है?”

   “मेरी तबियत का ही तो रोना है मौसी जी । इधर  अम्मा जी भी बीमार !मैं अपना तो कुछ कर नहीं पाती ,उनका कैसे करूं --!हाय राम----बड़ा दर्द है पिडलियों में सूजन भी आ गई है।“

   “वैशाली कुछ ज्यादा ही नाटक कर रही थी ,मौसी जी एक नजर में भाँप गई और बेरुखी से रुकमनी के कमरे की तरफ मुड़ गई।“

    शाम को खाना परोसते हुए वैशाली का रोज टेप रिकार्डर चालू हो जाता। नमक –मिर्च लगाकर पूर दिन की बातें बबलू के सामने उगल देना चाहती थी। बबलू उसका पति एक अच्छे श्रोता की तरह केवल हाँ –हूँ करता रहता । आज भी कुछ ऐसा ही हुआ।“

   “सुनते हो –हमारे पड़ोस मे जो  शर्मा जी रहते हैं उनकी पत्नी भी डॉक्टर है---बड़े भलमानस हैं। दोनों ही क्लीनिक जाते हैं ,लेकिन पीछे से उनकी बीमार माँ की देखभाल नहीं हो पाती ।“

     मन में तो बबली के आया कह दे –ऐसे डॉक्टर होने से क्या फायदा जो जग को तो ठीक करता फिरे और अपनी माँ के प्रति इतनी उदासीनता!जो माँ का न हो सका ,दूसरे का क्या भला करेगा। । यूं कहो –पैसे के पीछे दोनों भाग रहे हैं। पर अपनी आदत के मुताबिक केवल हूँ करके रह गया ।

      वैशाली ने फिर अपनी बात आगे बढ़ाई-“उन्होंने अपनी माँ को वृद्धाश्रम में छोड़ दिया है । हर माह वहाँ 2000हजार रुपए देते हैं । वे अपनी उम्र वालों के साथ रहकर बड़ी खुश हैं । शर्मा दंपति हफ्ते में एक बार उनसे मिल आते हैं।“  

    “तुम कहना क्या चाहती हो ?साफ –साफ बोलो।“

    “यही की अम्मा जी को भी वृद्धाश्रम में छोड़ दें तो कैसा रहेगा ?अब देखो न ,मुझसे तो अपना कुछ होता नहीं इनको क्या आराम दूँ । हम तो 2000 से भी ज्यादा इनके खर्चे को दे सकते हैं। ये भी खुश और हम भी खुश ।“

    “ओह ,अब मैं समझा। मेरी माँ तुम्हें गाए-बकरी लगने लगी है और तुम चाहती हो कि उसे जंगल में छोड़ दिया जाए। जहां वह रूखा –सूखा खाकर दिन गुजारे। मेरे याद में तड़पे तो उसकी चीख मेरे कानों से न टकराए। तुमको स्वछंद जीवन जीने की चाहत है । पति होने के नाते मुझे अपनी ज़िम्मेदारी मालूम है । अब उसे तो  निबाहना ही पड़ेगा।

   मैं माँ के नाम से वृद्धाश्रम में एक कमरा ही बनवा देता हूँ जो हमेशा हमारे परिवार के काम आएगा । कोई न कोई उसमें रहेगा ही । माँ के बाद मैं -तुम।मेरे –तुम्हारे बाद हमारे बहू –बेटे ---उसके बाद ---। घर की बहू होने के नाते जब तुम एक नई रीति को जन्म दे रही हो तो आगे की पीढ़ी को भी उसका अनुकरण तो करना ही पड़ेगा । चलो एक अलबेली परंपरा का जन्म ही सही ।“

     बबलू के संवाद चौकाने वाले थे । मानवीय मूल्यों को भुला देने वाली वैशाली ने कभी न सोचा था कि उसका फेंका पासा उसके पाले में ही आन पड़ेगा। उसे अपने कदम पीछे हटाने पड़े और फिर कभी वृदधाश्रम  का नाम अपनी जबान पर न लाई।“  

(प्रकाशित -सेवा समर्पण –मार्च 2006)

 

 

सोमवार, 20 जुलाई 2020

पूछो तो सच11


नीला आकाश 
सुधा भार्गव 
    भारतीय संस्कृति और परम्पराएं अपने में बड़ी अनोखी हैं।माँ -बाप जब तक सशक्त रहते हैं बच्चों की सहायता करने की कोशिश  करते हैं।  दिन शुरू होता है तो उनकी बातों से और रात  ख़तम होती है तो उनकी यादों में।  जब यही बच्चे सशक्त हो जाते हैं तो अशक्त माँ-बाप के मजबूत कंधे बन जाते हैं। कोरोना के समय भी यही हो रहा है।  घर -घर बुजुर्गों का ध्यान रखा जा रहा है या जो ध्यान नहीं रखते थे वे सीख रहे हैं।  दुनिया वाले इसे नहीं समझ पाते। 
    न जाने क्यों आज मुझे उस कनेडियन नर्स की याद आ रही है जो वर्षों पहले कनाडा में शाम को घर पर  पोती को देखने स्वास्थ्य विभाग से आई थी। मैं उन दिनों ओटवा में ही थी। उसने हमारे घर आये नवजात शिशु की जांच की। नए बने माँ-बाप माँ-बाप को पालन पोषण सम्बन्धी तथ्य बताये। दो घंटे तक समस्यायों का समाधान करती रही मैं इस व्यवस्था को देख बहुत संतुष्ट हुई पर मुझे एक बात बहुत बुरी लगी
नर्स ने पूछा-घर मेँ कोई सहायता करने वाला है?
"हाँ,मेरे सास-ससुर भारत से आए है।" बहू बोली।
"कब तक रहेंगे?"
"3-4 माह तक।"
"क्या वे तुम्हारी वास्तव मेँ सहायता करते हैं?"
"सच मेँ करते हैं।"
"पूरे विश्वास से कह रही हो?"
"इसमें कोई शक की बात ही नहीं है।"
"ठीक है,तब भी शरीर से कम और दिमाग से ज्यादा काम लो।"
   नर्स शंकित हृदय से  मुझसे बहुत देर तक कुछ  जानने की कोशिश करती रही पर कंकड़-पत्थरों  के अलावा उसके कुछ हाथ न लगा।   
    न जाने ये पश्चिमवासी सास –बहू के रिश्ते को तनावपूर्ण क्यों समझते हैं?जिस माँ की बदौलत मैंने प्यारी सी पोती पाई उसे क्यों न दिल दूँगी। इसके अलावा माँ सबको प्यारी होती है। बड़ी होने पर जब मेरी पोती  देखेगी कि मैं उसकी माँ को कितना चाहती हूँ तो वह खुद मुझे प्यार करने लगेगी।   दादी अम्मा कहकर जब वह मेरी बाहों मेँ समाएगी तो खुशियों का असीमित सागर मेरे सीने मेँ लहरा उठेगा। शायद उस नर्स ने कभी नीला आकाश देखा ही न था  । शायद कोरोना का यह  वीभत्स तांडव नृत्य उनके पारिवारिक जीवन में मिठास पैदा कर दे। 

शनिवार, 18 जुलाई 2020

पूछो तो सच -10


हमारा लीडर
सुधा भार्गव

मित्रों आज घर में बैठे बैठे मुझे अपने लीडर की याद आ गई ।बात उन दिनों की है जब
मैं बी. ए. की छात्रा टीकाराम गर्ल्स कॉलेज अलीगढ़ के छात्रावास में रहकर पढ़ा करती थी । छात्रावास कालिज की तीसरी मंजिल पर था । एक कमरे में चार -चार लड़कियाँ रहती थीं । कमरा काफी बड़ा था इसलिए कोई असुविधा नहीं थी । लेकिन एक रात हमारे लिए डरावने -डरावने सपने लेकर आई । लगा कमरे से बाहर कोई चहलकदमी कर रहा है ,फुसफुसा रहा है। ख्यालों की खिचड़ी पकने लगी -एक नहीं दो नहीं,तीन -चार चोर तो जरूर होंगे जो हमें लूटने की फिराक में हैं । दिसंबर का महीना --चिल्लाएँगे तो कानों तक आवाज भी नहीं पहुंचेगी ,सिर तक लिहाफ ओढ़े वार्डन और टीचर्स खर्राटे ले रही होंगी ।
हमने कमरे की चारों ट्यूवलाइट जला दीं और ज़ोर -ज़ोर से बातें करके चोरों के दिमाग में यह बात बैठानी चाही कि जाग पड़ गई है सो वे भाग जाएँ ।हम भी पौ फटने का इंतजार करने लगे । उजाला होते ही खिड़कियाँ खोलकर बाहर की ओर झाँकने लगे । खाना बनाने वाले महाराज को ऊपर आता देख सांस में सांस आई और कमरे का दरवाजा खोल दिया । उन्हें घेरकर हम बोले-”महाराज --महाराज रात में चोर आए थे ।”
इतने में वार्डन आ गई । खिल्ली उड़ाते हुये बोली -“उनकी आँखों में लाल मिर्च क्यों नहीं झोंक दीं ।”
“बहन जी क्या बात करती हैं । चोर क्या आकर कहेंगे -लो हमारी आँखों में मिर्च भर दो ।” महाराज खीज उठा ।
हम लड़कियां तो अवाक सी वार्डन की ओर देखती ही रह गईं । यह बात प्रिंसपाल के कानों तक भी पहुँची। तीन -चार लोगों की जांच समिति आई और चौकीदारों को अधिक सजग रहने का आदेश दे दिया गया । एक बात हम समझ गए थे कि अपनी लड़ाई हमें खुद लड़नी होगी ।
हमने वास्तव में ही रसोईया महाराज से पिसी लाल मिर्च लेकर मिर्चदानी में भर ली । उसको एक थैले में डालकर फल काटने का चाकू भी रख दिया । निश्चय किया इस थैले को कंधे पर लटकाकर बारी -बारी से लड़कियां पहरा देंगी । छात्रावास का नियम था कि रात को ग्यारह बजे लाइट्स बंद करके सोना पड़ता था । लेकिन उस दिन तो बारह बज गए और बिजली जल रही थी । परेशान सी वार्डन आई और पूछा --
“लड़कियों यह चहल -पहल कैसी ---और यह झोला कंधे पर क्यों ?इसमें क्या भर रखा है ?”एक ही साँस में इतने प्रश्न !वह बौखलाई सी थी ।
सहपाठिन क्षमा बोली -“मैडम ,यदि आज रात चोर आ गए तो हमारे सामने दो ही रास्ते होंगे --आत्मरक्षा या आत्महत्या । आत्मसमर्पण करने से तो रहे ।”
“लेकिन इस थैले मेँ क्या है ?”सब्र का बांध टूटा जा रहा था ।
“आत्मरक्षा का समाधान!”
क्षमा ने अपने कंधे से थैला उतारा । उसमें से मिर्च , धारवाला चाकू निकालते हुये बोली-
“अपने लक्ष्य को पाने के लिए मेरे ख्याल से ये बहुत हैं !”
साहस व आत्मविश्वास से भरी बातों को सुनकर वार्डन चकित थी । साथ ही क्षमा जैसी दु:साहसी लड़की को देख दहशत से भर उठीं कि अनजाने में यह लड़की कोई गुल न खिला दे। हमारी तो वह लीडर हो गई। पर वह लीडर आज की लीडर नहीं । न तो कोरोना को भगा सकती है और न पिंजरे में बंद हम जैसे पंछियों को मुक्त करा सकती है।
यह कैसी मजबूरी है !

पूछो तो सच-6




जन्म -8मार्च,2017
     
    आज मैंने ज़िंदगी के 75 वर्ष पूरे कर लिए हैं। बड़ी  सुबह ही  क्लिक -क्लिक की आवाज से नींद टूट गई। शुभकामनाओं का तांता लगा हुआ था। किसी की आवाज सुनाई दी तो किसी के शब्द दिखाई दिए। कुछ ने फेस बुक पर लंबी उम्र और  खुशहाल जीवन की कामना करते हुए उसकी वॉल पर वाक्य चिपका दिए।
     सब एक ही बात पूछते थे –आज किस तरह से अपना जन्मदिन मना रही हो?मेरा एक ही जबाब होता-बिना बच्चों के क्या जन्मदिन। दो तो बाहर ही हैं। जब एक साथ इखट्टे होंगे तभी कुछ होगा।
   बेटी का फोन आया –“माँ हैपी बर्थडे । शाम को क्या कर रही हो?”
   “करना क्या है!शाम को रोजाना की तरह सोनू के यहाँ  खाना खाने जाऊँगी। हाँ शाम को  जरूर अपने मित्रों को मिठाई खिलाऊंगी। तुम्हारी भाभी  से 15 मित्रों के लिए मिठाई लाने को कह देती हूँ। वह बाजार गई हुई है।”
   बहू  को फोन खटखटाया –“तुम कहाँ हो?कब तक आओगी?”
   “मुझे आने में देर लगेगी। बच्चे भी साथ है। कोई बात है क्या?”
   “मुझे अपने दोस्तों के लिए मिठाई चाहिए। सड़क पर इतनी भीड़ है कि उसे पार करने में ही पसीना आने लगता है। तुम लौटते समय ले आना। पाँच बजे तक मैं नीचे पार्क में जाऊँगी। वहीं सब इखट्टे होंगे।”
   “मैं तब तक घर आ जाऊँगी।
   शाम के पाँच बजने पर छोटी बहू  जब लौटकर नहीं आई तो मैं बेचैन हो उठी।
   “कितनी और देर लगेगी आने में?”मैंने झुंझलाते हुए फोन पर कहा।
   “बस आ रही हूँ।
   “मैं तैयार हूँ। नीचे आ जाऊँ!”
   “नहीं –नहीं आप नीचे नहीं आइए । मैं फोन करूं तब आइएगा।”
   मुझे बड़ा अजीब सा लगा। समझ नहीं आया कि ऐसे क्या काम आन पड़े कि सुबह से शाम हो गई। बच्चे भी परेशान हो गए होंगे।
   तभी यू॰के॰ से बड़ी बहू का फोन आ गया- “मम्मी जी हैपी बर्थडे!क्या कर रही हैं?”
   “कर क्या रही हूँ!अभी तो तुम्हारी दौरानी के आने  का इंतजार कर रही हूँ। कहा था 5बजे तक कुछ मिठाई लाकर दे दो। पाँच बजे आने को कह रही थी। अब साढ़े पाँच बजने वाले हैं। मुझे मालूम होता इतनी देर लग जाएगी तो मैं ही लाने का कुछ जुगाड़  करती। मुश्किल से एक घंटे तो हम दोस्त पार्क में बैठते हैं। देर होने से आधे तो चले ही जाएँगे।अच्छा फोन बंद करती हूँ। अभी उसको ही फोन लगाती हूँ। न जाने कहाँ अटक गई?
   मैंने गुस्से में  छोटी बहू को  फोन कर ही डाला-“तुम अब न लाओ । मैं नीचे जा रही हूँ। आज उनको ड्राई फ्रूट्स खिला दूँगी। मिठाई कल हो जाएगी।”
   “अरे नहीं,दो मिनट रुकिए मैं कुछ करती हूँ।मिठाई तो आज ही शोभा देगी।”
  बहू  की आवाज में परेशानी घुली हुई थी।  मेरा गुस्सा मोम की तरह पिघल पिघल बहने लगा।
   इस बार मोबाइल फिर बज उठा। बेटे की आवाज सुन चौंक पड़ी।
   “माँ,मैं आ रहा हू। घर पर हो न।’’
   “अरे इस समय तू क्यों आ रहा है। मैं नीचे जा रही हूँ। घूमने का समय हो गया है।”
  “नीचे तो रोज ही जाती रहती हो ---आज रहने दो।
   “अच्छा आजा। मैंने सोचा ,बिना बहू  और बच्चों के घर में उकता गया होगा।   
   बेटा आया। बोला-“माँ कैसी हो?”
   “ठीक हूँ। न जाने तेरी बहू  कहाँ रह गई। मैंने बुझे मन से कहा।
   “अभी आती होगी। इतने मेरे घर चलो।”
   “क्यों! वहाँ क्यों चलूँ?”
   “माँ,आप घर में पेंट करवाने की कह रही थीं। पेंटिंग  वाला आ रहा है। उससे कुछ बातें करनी हैं। रंग भी पसंद कर लो।”
 -मैं क्या रंग पसंद करूँ!तू ही कर ले।वही हो जाएगा।
 -ओह माँ चलो तो। दो मिनट ही तो लगेंगे।
 -अच्छा चल।
  मैं बेटे के घर की तरफ चल दी जो मुश्किल से 10 कदम की दूरी पर था । बड़े प्यार से वह मेरा हाथ थामें हुआ था।रास्ते भर खिचड़ी पकाती रही- 75 वर्ष की हो गई तो क्या हुआ!बुढ़ापा मुझसे कोसों दूर हैं। आ भी  गया तो क्या हुआ! मेरा क्या बिगाड़ लेगा –मैं तो बेटे के हाथों पूरी तरह सुरक्षित  हूँ।
    उसने अपना दरवाजा खटखटाया। दरवाजे के खुलते  ही अवाक रह गई। मेरी  करीब 20-25 सहेलियाँ बैठी हुई थीं।  मित्र तापसी बंगाली में जन्मदिन का गीत गा रही थी।सब तन्मय हो उसमें खोये हुए थे। 


   पास ही बहू  का बनाया केक मेज पर मुस्कुरा रहा था। सबके प्यार को देख मेरा हृदय भर आया।गाना समाप्त होते ही हैपी बर्थडे से घर गूंज उठा। लगा सबको एक साथ गले लगा लूँ। दिल में तो वे पहले ही बस चुके थे। इसके बाद का हाल तो फोटुयेँ ही बयान कर देंगी।






   इस  सरप्राइज़ पार्टी की तो मैं कल्पना ही नहीं कर सकती थी। इसका प्रबंध बच्चों और मित्रों ने इस प्रकार किया कि जिसका जन्मदिन था उसी को पता नहीं।असल में बहू घर से बाहर कहीं नहीं गई थी । उसने बाहर जाने का बहाना किया था ताकि मैं उसके फ्लैट में न पहुँच सकूं और चुपचाप  वह पार्टी की तैयारी कर सके ।  दोनों पोतियों ने भी भाग -भागकर खूब काम किया। मेहमानों से बार -बार खाने  की पूछती और जब नन्हें हाथों से उनकी प्लेट में कोई व्यंजन परोसती तो खाने का स्वाद दुगुन हो जाता। मेहमानों को देने वाले बैक गिफ्ट की पैकिंग और सज्जा इन दोनों ने ही की थी। और तो और बड़ी पोती ने तो सबके बीच कालीन  पर बैठकर गिटार पर हैपी बर्थडे की बड़ी प्यारी धुन सुनाई। तीन पीढ़ियों का संगम देखते ही बनता था। 
   आज सबसे बड़ा प्रश्न है कि नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के मध्य बढ़ती खाई को कैसे पाटा जाय?इसके बारे में बहुत कुछ लिखा जा रहा है। मगर ज़्यादातर लोग युवा पीढ़ी से बड़े निराश है। उनके प्रति नकारात्मक सोच की दीवारें इतनी मजबूत हैं कि सकारात्मक सोच वहाँ पनपने ही नहीं पाती। किसी निर्णय पर पहुँचने से पहले समस्या की जड़ों तक जाना जरूरी है। कभी कभी जो दिखाई देता है वह वैसा होता नहीं। यदि लेखनी द्वारा ऐसा साहित्य परोसा जाय जो  बुजुर्ग  और नई पीढ़ी के मध्य की खाई को भर सकने में सहायक हो तो बहुत ही अच्छा है।