कहानी
सुगंधभरी साँसें
सुधा भार्गव
ससुराल में घूँघट
के बीच पढ़ी –लिखी स्वाति,के रोमांचक अनुभवों की कहानी
शहनाई बज रही थी ।एक
दूसरे की सुगंध भरी साँसों की टकराहट से मन की वीणा के तार झनझना उठे। कमाल और
स्वाति ने न जाने कब –कब में एक दूसरे के गले में जयमाला डाल दी । जाली के घूँघट
में स्वाति की झलक मिलने से कमाल उसकी ओर टकटकी लगाए हुए था और दुल्हन बनी स्वाति की
पलकें लाज के मारे झुकी जा रही थीं। थीं।
मनमोहक फूलों की लड़ियों से सजे मंडप में वे फेरों पर बैठने ही वाले थे कि
जनमासे से खबर आई – ‘बहू का घूँघट नीचे कर दिया जाए।‘ अपनी बेटी को लड़कों के साथ
उच्च शिक्षा दिलवाकर कमलेश्वर बाबू ने आधुनिकता का परिचय दिया था परंतु वे भी इस
समय लड़के वालों की इस बेतुकी बात का विरोध न कर सके । यह साबित हो गया कि लड़की का
बाप कितना भी धनी हो ,बेटी सरस्वती स्वरूपा हो ,उसे लड़के वालों के आगे सिर झुकाना पड़ता है ।
स्वाति के पीहर में घूँघट प्रथा नहीं थी । मर्यादा में रहकर उसने अपनी माँ
–चाची को बाबा से बातें करते देखा था । हाँ ,गंगा स्नान के
कार्तिकी मेले में ग्रामीण महिलाओं का विचित्र एक फुटा घूँघट उसे अच्छे से याद था।
उसने झटके से सिर के पल्लू को आगे की ओर खींचा तो उसकी कमर दीखने लगी । सच में वह
फूहड़ गंवारिन सी लग रही थी । अग्नि की परिक्रमा करते समय उसकी समझ में नहीं आ रहा
था कि वह खुद को संभाले या साड़ी को। कभी –कभी तो वह डर जाती अग्निकुंड में आहुति
देते –देते वह खुद ही स्वाहा न हो जाए।
विदा होने के बाद गजभर का घूँघट काढ़े ससुराल की दहलीज पर पैर रखा ।
महिलाएं देखकर बड़ी खुश !आह कितनी सुसंस्कृत और परम्परावादी बहू है । लज्जा तो उसका
गहना है। उसने जब भी कौवे की तरह गर्दन टेढ़ी करके तिरछी आँख से बाहर झाँका ,बहुत सी आँखें उसे घूरती नजर आईं ।
बहुत
पहले उसने भी तो किसी को घूरा था ! हाँ उछलकर उसे अपना
बचपन याद हो आया । वह मुश्किल से छ्ह वर्ष की रही होगी । धोबिन अपनी बहू को लेकर
माँ -बाबूजी का आशीर्वाद लेने आई । स्वाति उसे देख बाहर जाते –जाते रुक गई। नीचे
झुककर घूँघट में से बहू का मुख देखने की कोशिश करने लगी। हठात ताली पीटती बोली –आह
,देख लिया –मैंने तो देख लिया ।` तमाशगीर
आज खुद तमाशा बनी बैठी थी।
उसी समय बच्चों का रेला आया –चाची आ गई ---चाची आ गई। धम धम करते धमक पड़े
। कोई उसके कंधे पर गिरा ,किसी का पैर उसके बिछुए पर आन पड़ा।
पीड़ा से छटपटा गई । इन जंगली बछड़ों पर उसे बहुत गुस्सा आया । उनसे छुटकारा पाने के
लिए लंबा से घूँघट डाल लिया । बच्चे समझे –चाची उनसे बात नहीं कर सकती । वे सहमे
से लौट गए । नटखट बालिका की तरह दुल्हन स्वाति खिलखिला उठी –अरे !पर्दे में एक तो
गुण है । जिसे देखना चाहो देखो ,जिसे खुद को दिखाना हो दिखाओ
वरना मुखमंडल के कपाट बंद ।
कुछ देर में कांकन-जुआ और मुट्ठी खोलने की रस्म होने वाली थी । स्वाति ने
कभी हारना न सीखा था । उसने घूँघट पलटकर दोनों हाथ बढ़ा दिये । पर्दे के पीछे से
प्रकट होने वाले आत्मविश्वास से भरपूर चेहरे को देखकर घरवाले सकपका गए । वे तो
समझे थे बहू दब्बू ,कमजोर और उनके हाथ की कठपुतली होगी। किसी
में इतना कहने का साहस न बचा,बहू जरा पल्ला खींच ले । विरोध
कपूर की तरह उड़ गया। उसकी शक्तिशाली मुट्ठी को कमल खोल न सका। पानी और घास से भरे
तसले में गिराई अंगूठियों को भी उन्होंने ढूंढा । बच्चों की तरह क्रीड़ाएँ की ।
उनकी उन्मुक्त हंसी से सोच की कालिमा में उजाला भर गया । कमाल के हाथ चांदी की
अंगूठी हाथ लगी । स्वाति ने देखा –सोने की अंगूठी उसकी नाजुक अंगुलियों में फंसी
है। अलेक्ज़ेंडर द ग्रेट की तरह झूम उठी।
दूसरे
दिन मुंह दिखाई थी । पूरी बिरादरी आने वाली थी । बनारसी जरी की साड़ी के साथ कुन्दन
का सैट पहनाकर उसे खूबसूरत गलीचे पर बैठा दिया। तभी छोटी नन्द ने चुहलबाजी की
“भाभी रानी थोड़ा घूँघट कर लो । पट खोलने पर ही माल मिलेगा । चुड़ैल की नजर से भी बच
जाओगी ।’’
स्वाति
के गुलाबी होठों पर हास्य तिर गया । वह दोनों हाथों से उपहार बटोर रही थी। अचानक
मन अटक कर रह गया रवीन्द्रनाथ टैगोर के उस उपन्यास में जिसमें दो दुल्हनें नाव
दुर्घटना में बदल गई थीं। अपनी पत्नियों के तलाशने में दूल्हे राजाओं को नानी याद
आ गई । दुल्हनों ने न शादी से पहले दूल्हे देखे थे न शादी के समय । उनके मध्य
पर्दे की दीवार जो थी ।
शाम के समय स्वाति कमरे में एकांत पाकर बड़ी राहत का अनुभव कर रही थी । तभी
ससुर जी उसके देवर को ढूंढते वहाँ आए ।वह बड़े अदब से खड़ी हो गई और उनको बैठने के
लिए कुर्सी दी । बहू के भद्र व्यवहार से वे पुलकित हो उठे।
‘बेटा ,तुमने अपने देवर राम को देखा क्या?”
“नहीं बाबू जी ।’’
बिना
बैठे ही वे तुरंत चल दिए । शायद नई बहू के सामने ज्यादा ठहरना उचित नहीं समझा ।
इतने में दनदनाती ,जेवरों से लदी-फदी एक सेठानी आई और पूछा
–“बहू , तुम किसी से बातें कर रही थीं ?”
“हाँ ,बाबू जी से बातें कर रही थी।’’
“ससुर से बातें नहीं करते ।’’ बंदूक दागते बोली ।
“उन्होंने मुझसे जब कुछ पूछा तो उसका उत्तर देना ही था । वरना चुप रहना
मेरी बेवकूफी होती या अशिष्टता ।’’
सेठानी
अपना सा मुंह लेकर रह गई ।
थोड़ी देर में देवरजी मिष्ठान –नमकीन सहित चाय लाए । जिठानी जी भी वहाँ आ
गईं , उन्होंने चाय शुरू की ही थी कि ससुर जी भी बड़ी
प्रसन्नमुद्रा में आ पहुंचे । उन्हें शायद मालूम हो गया था कि देवर जी यहीं है ।
स्वाति ने एक कप चाय तैयार की और उनसे लेने का आग्रह किया । उनकी आँखों में अथाह
प्यार छलका पड़ता था ।
वे
बोले- “पाँच बिटियाँ बिदा करके दो बेटियाँ घर में लाया हूँ । मैं चाहता हूँ सब हँस
मिलकर घर में बातें करें ,खाएं –पीयें। घर का एक सदस्य एक
कोने में ,दूसरा दूसरे कोने में ,तीसरा
बाहर , यह बिखराव-अलगाव मुझसे सहन नहीं होता।’’
वे जिठानी जी की तरफ मुड़े –“बड़ी बहू ,तुमने बहुत
पर्दा कर लिया । अब मैं चाहता हूँ बहुएँ पर्दा न करें ।’’
“लो यह कैसे हो सकता है ?जब पर्दा नहीं करते थे तब
कहा गया पर्दा करो । जब आदत पड़ गई तो कहा जा रहा है पर्दा नहीं करो । अब तो हम घूँघट
डाल कर ही रहेंगे ।’’
स्वाति
जिठानी की बात सुनकर अवाक रह गई । कहने को पर्दा करती थीं परंतु बड़ों के प्रति
इतनी कटुता। शालीनता छू तक न गई थी । जिठानी से बहुत छोटी होते हुए भी इतना तो
समझती थी कि पर्दे का अर्थ गूंगा बहरा या अंधा होना नहीं अपितु अशिष्टता-अश्लीलता
से पलायन करना है। जो पर्दे की ओट में कैंची सी जीभ चलाकर बड़ों को मर्मांतक पीड़ा
पहुंचाए उसके लिए पर्दा शब्द ही निरर्थक है ।
समय की नजाकत को समझते हुए वह उससे तालमेल बैठाने में कुशल थी पर उसने उसी
समय ठान लिया कि अवसर पाते ही पर्दे की सड़ी-गली केंचुली को
उतार फेंकेगी ।
वैसे
भी अतीत के कुछ पल उसके साथ इस प्रकार बिंध गए थे कि कभी उसे रुलाते ,कभी हँसाते । स्वाति के चचा जी –ताऊ जी एक दूसरे से बहुत कुछ मिलते जुलते
थे । एक सी सेहत ,एक सी चाल –ढाल,एक सी
आवाज । एक विवाह समारोह में चाची को तिलक करने के लिए रुपयों की आवश्यकता पड़ी ।बस
होने लगी चाचा की तलाश ।उधर से ताऊ निकले । घूँघट में कैद चाची ने उन्हें चाचा
समझा और होली उनके पीछे ---अजी सुन रहे हो ----क्या
भागे जा रहे हो! ताऊ जी ने झेंपकर अपनी चाल तेज कर दी । हारकर ताऊ जी बोले
–दिल्लीवाली मैं हूँ (चाची दिल्ली की रहने वाली थीं)। चाची पर तो घड़ों पानी पड़
गया। इस चूहे –बिल्ली के खेल में दस वर्षीय स्वाति को बड़ा मजा आ रहा था। उस समय तो
नहीं समझ सकी कि चाची आधा मुंह क्यों छिपाए रहती हैं पर अब पर्दे के कारण आए तूफान
और टूटी डालियाँ उसे पसंद नहीं थीं ।
बालसखी सरिया की याद आते ही उसकी आँखें गीली हो जाती । इस घूँघट के कारण ही तो उसका अंग -अंग झुलस गया था । रोटी सेकते समय चुंदरी
में आग लग गई थी और इसका उसे पता ही न लगा । उसका पति वेदा रो –रोकर कसमें खा रहा
था –“डॉक्टर साहब मैंने अपनी सरिया को नहीं जलाया ।'' उसकी
चीख़ों से दिल दहल जाते। घाव तो ठीक हो गए पर अंगों की कुरूपता ने उसे हमेशा के लिए
जख्मी कर दिया । उसकी हालत पागलों की सी हो गई । वह हर आने –जाने वाले को दागी हाथ
दिखाती और सिसकने लगती। जब –तब स्वाति के सामने सरिया का चेहरा घूमता रहता ।
वह ज्यादा दिन
घूँघट जैसे दानव की गिरफ्त में न रह सकी। किसी की भी सांसें
दम तोड़े ,उससे पहले ही उसने दृढ़ता की शलाका अपने हाथों में
थाम ली और पर्दे जैसी कुप्रथा को रौंदती ग्रामीण महिलाओं के संसार में रच बस गई ।
समाप्त
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें