मेरी कहानियाँ

मेरी कहानियाँ
आर्टिस्ट -सुधा भार्गव ,बिना आर्टिस्ट से पूछे इस चित्र का उपयोग अकानून है।

बुधवार, 28 जुलाई 2021

प्रकाशित -सेवा समर्पण पत्रिका

 

कहानी 

सुगंधभरी साँसें

सुधा भार्गव 


ससुराल  में घूँघट के बीच पढ़ी –लिखी स्वाति,के रोमांचक अनुभवों की कहानी  

शहनाई बज रही थी ।एक दूसरे की सुगंध भरी साँसों की टकराहट से मन की वीणा के तार झनझना उठे। कमाल और स्वाति ने न जाने कब –कब में एक दूसरे के गले में जयमाला डाल दी । जाली के घूँघट में स्वाति की झलक मिलने से कमाल उसकी ओर टकटकी लगाए हुए था और दुल्हन बनी स्वाति की पलकें लाज के मारे झुकी जा रही थीं। थीं। 

     मनमोहक फूलों की लड़ियों से सजे मंडप में वे फेरों पर बैठने ही वाले थे कि जनमासे से खबर आई – ‘बहू का घूँघट नीचे कर दिया जाए।‘ अपनी बेटी को लड़कों के साथ उच्च शिक्षा दिलवाकर कमलेश्वर बाबू ने आधुनिकता का परिचय दिया था परंतु वे भी इस समय लड़के वालों की इस बेतुकी बात का विरोध न कर सके । यह साबित हो गया कि लड़की का बाप कितना भी धनी हो ,बेटी सरस्वती स्वरूपा हो ,उसे लड़के वालों के आगे सिर झुकाना पड़ता है । 

    स्वाति के पीहर में घूँघट प्रथा नहीं थी । मर्यादा में रहकर उसने अपनी माँ –चाची को बाबा से बातें करते देखा था । हाँ ,गंगा स्नान के कार्तिकी मेले में ग्रामीण महिलाओं का विचित्र एक फुटा घूँघट उसे अच्छे से याद था। उसने झटके से सिर के पल्लू को आगे की ओर खींचा तो उसकी कमर दीखने लगी । सच में वह फूहड़ गंवारिन सी लग रही थी । अग्नि की परिक्रमा करते समय उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह खुद को संभाले या साड़ी को। कभी –कभी तो वह डर जाती अग्निकुंड में आहुति देते –देते वह खुद ही स्वाहा न हो जाए।

     विदा होने के बाद गजभर का घूँघट काढ़े ससुराल की दहलीज पर पैर रखा । महिलाएं देखकर बड़ी खुश !आह कितनी सुसंस्कृत और परम्परावादी बहू है । लज्जा तो उसका गहना है। उसने जब भी कौवे की तरह गर्दन टेढ़ी करके तिरछी आँख से बाहर झाँका ,बहुत सी आँखें उसे घूरती नजर आईं । 

  बहुत पहले  उसने भी तो किसी को घूरा था ! हाँ उछलकर उसे अपना बचपन याद हो आया । वह मुश्किल से छ्ह वर्ष की रही होगी । धोबिन अपनी बहू को लेकर माँ -बाबूजी का आशीर्वाद लेने आई । स्वाति उसे देख बाहर जाते –जाते रुक गई। नीचे झुककर घूँघट में से बहू का मुख देखने की कोशिश करने लगी। हठात ताली पीटती बोली –आह ,देख लिया –मैंने तो देख लिया ।` तमाशगीर आज खुद तमाशा बनी बैठी थी। 

    उसी समय बच्चों का रेला आया –चाची आ गई ---चाची आ गई। धम धम करते धमक पड़े । कोई उसके कंधे पर गिरा ,किसी का पैर उसके बिछुए पर आन पड़ा। पीड़ा से छटपटा गई । इन जंगली बछड़ों पर उसे बहुत गुस्सा आया । उनसे छुटकारा पाने के लिए लंबा से घूँघट डाल लिया । बच्चे समझे –चाची उनसे बात नहीं कर सकती । वे सहमे से लौट गए । नटखट बालिका की तरह दुल्हन स्वाति खिलखिला उठी –अरे !पर्दे में एक तो गुण है । जिसे देखना चाहो देखो ,जिसे खुद को दिखाना हो दिखाओ वरना मुखमंडल के कपाट बंद । 

    कुछ देर में कांकन-जुआ और मुट्ठी खोलने की रस्म होने वाली थी । स्वाति ने कभी हारना न सीखा था । उसने घूँघट पलटकर दोनों हाथ बढ़ा दिये । पर्दे के पीछे से प्रकट होने वाले आत्मविश्वास से भरपूर चेहरे को देखकर घरवाले सकपका गए । वे तो समझे थे बहू दब्बू ,कमजोर और उनके हाथ की कठपुतली होगी। किसी में इतना कहने का साहस न बचा,बहू जरा पल्ला खींच ले । विरोध कपूर की तरह उड़ गया। उसकी शक्तिशाली मुट्ठी को कमल खोल न सका। पानी और घास से भरे तसले में गिराई अंगूठियों को भी उन्होंने ढूंढा । बच्चों की तरह क्रीड़ाएँ की । उनकी उन्मुक्त हंसी से सोच की कालिमा में उजाला भर गया । कमाल के हाथ चांदी की अंगूठी हाथ लगी । स्वाति ने देखा –सोने की अंगूठी उसकी नाजुक अंगुलियों में फंसी है। अलेक्ज़ेंडर द ग्रेट की तरह झूम उठी। 

   दूसरे दिन मुंह दिखाई थी । पूरी बिरादरी आने वाली थी । बनारसी जरी की साड़ी के साथ कुन्दन का सैट पहनाकर उसे खूबसूरत गलीचे पर बैठा दिया। तभी छोटी नन्द ने चुहलबाजी की “भाभी रानी थोड़ा घूँघट कर लो । पट खोलने पर ही माल मिलेगा । चुड़ैल की नजर से भी बच जाओगी ।’’ 

   स्वाति के गुलाबी होठों पर हास्य तिर गया । वह दोनों हाथों से उपहार बटोर रही थी। अचानक मन अटक कर रह गया रवीन्द्रनाथ टैगोर के उस उपन्यास में जिसमें दो दुल्हनें नाव दुर्घटना में बदल गई थीं। अपनी पत्नियों के तलाशने में दूल्हे राजाओं को नानी याद आ गई । दुल्हनों ने न शादी से पहले दूल्हे देखे थे न शादी के समय । उनके मध्य पर्दे की दीवार जो थी । 

    शाम के समय स्वाति कमरे में एकांत पाकर बड़ी राहत का अनुभव कर रही थी । तभी ससुर जी उसके देवर को ढूंढते वहाँ आए ।वह बड़े अदब से खड़ी हो गई और उनको बैठने के लिए कुर्सी दी । बहू के भद्र व्यवहार से वे पुलकित हो उठे।  

    ‘बेटा ,तुमने अपने देवर राम को देखा क्या?”

   “नहीं बाबू जी ।’’ 

   बिना बैठे ही वे तुरंत चल दिए । शायद नई बहू के सामने ज्यादा ठहरना उचित नहीं समझा । इतने में दनदनाती ,जेवरों से लदी-फदी एक सेठानी आई और पूछा –“बहू , तुम किसी से बातें कर रही थीं ?”

   “हाँ ,बाबू जी से बातें कर रही थी।’’ 

   “ससुर से बातें नहीं करते ।’’ बंदूक दागते बोली । 

   “उन्होंने मुझसे जब कुछ पूछा तो उसका उत्तर देना ही था । वरना चुप रहना मेरी बेवकूफी होती या अशिष्टता ।’’ 

   सेठानी अपना सा मुंह लेकर रह गई । 

    थोड़ी देर में देवरजी मिष्ठान –नमकीन सहित चाय लाए । जिठानी जी भी वहाँ आ गईं , उन्होंने चाय शुरू की ही थी कि ससुर जी भी बड़ी प्रसन्नमुद्रा में आ पहुंचे । उन्हें शायद मालूम हो गया था कि देवर जी यहीं है । स्वाति ने एक कप चाय तैयार की और उनसे लेने का आग्रह किया । उनकी आँखों में अथाह प्यार छलका पड़ता था । 

   वे बोले- “पाँच बिटियाँ बिदा करके दो बेटियाँ घर में लाया हूँ । मैं चाहता हूँ सब हँस मिलकर घर में बातें करें ,खाएं –पीयें। घर का एक सदस्य एक कोने में ,दूसरा दूसरे कोने में ,तीसरा बाहर , यह बिखराव-अलगाव मुझसे सहन नहीं होता।’’  

    वे जिठानी जी की तरफ मुड़े –“बड़ी बहू ,तुमने बहुत पर्दा कर लिया । अब मैं चाहता हूँ बहुएँ पर्दा न करें ।’’ 

   “लो यह कैसे हो सकता है ?जब पर्दा नहीं करते थे तब कहा गया पर्दा करो । जब आदत पड़ गई तो कहा जा रहा है पर्दा नहीं करो । अब तो हम घूँघट डाल कर ही रहेंगे ।’’ 

   स्वाति जिठानी की बात सुनकर अवाक रह गई । कहने को पर्दा करती थीं परंतु बड़ों के प्रति इतनी कटुता। शालीनता छू तक न गई थी । जिठानी से बहुत छोटी होते हुए भी इतना तो समझती थी कि पर्दे का अर्थ गूंगा बहरा या अंधा होना नहीं अपितु अशिष्टता-अश्लीलता से पलायन करना है। जो पर्दे की ओट में कैंची सी जीभ चलाकर बड़ों को मर्मांतक पीड़ा पहुंचाए उसके लिए पर्दा शब्द ही निरर्थक है । 

    समय की नजाकत को समझते हुए वह उससे तालमेल बैठाने में कुशल थी पर उसने उसी समय ठान लिया कि अवसर पाते ही पर्दे की सड़ी-गली केंचुली को उतार फेंकेगी । 

   वैसे भी अतीत के कुछ पल उसके साथ इस प्रकार बिंध गए थे कि कभी उसे रुलाते ,कभी हँसाते । स्वाति के चचा जी –ताऊ जी एक दूसरे से बहुत कुछ मिलते जुलते थे । एक सी सेहत ,एक सी चाल –ढाल,एक सी आवाज । एक विवाह समारोह में चाची को तिलक करने के लिए रुपयों की आवश्यकता पड़ी ।बस होने लगी चाचा की तलाश ।उधर से ताऊ निकले । घूँघट में कैद चाची ने उन्हें चाचा समझा और  होली उनके पीछे ---अजी सुन रहे हो ----क्या भागे जा रहे हो! ताऊ जी ने झेंपकर अपनी चाल तेज कर दी । हारकर ताऊ जी बोले –दिल्लीवाली मैं हूँ (चाची दिल्ली की रहने वाली थीं)। चाची पर तो घड़ों पानी पड़ गया। इस चूहे –बिल्ली के खेल में दस वर्षीय स्वाति को बड़ा मजा आ रहा था। उस समय तो नहीं समझ सकी कि चाची आधा मुंह क्यों छिपाए रहती हैं पर अब पर्दे के कारण आए तूफान और  टूटी डालियाँ उसे पसंद नहीं थीं । 

    बालसखी सरिया की याद आते ही उसकी आँखें गीली हो जाती । इस  घूँघट के कारण ही तो उसका अंग -अंग झुलस गया था । रोटी सेकते समय चुंदरी में आग लग गई थी और इसका उसे पता ही न लगा । उसका पति वेदा रो –रोकर कसमें खा रहा था –“डॉक्टर साहब मैंने अपनी सरिया को नहीं जलाया ।'' उसकी चीख़ों से दिल दहल जाते। घाव तो ठीक हो गए पर अंगों की कुरूपता ने उसे हमेशा के लिए जख्मी कर दिया । उसकी हालत पागलों की सी हो गई । वह हर आने –जाने वाले को दागी हाथ दिखाती और सिसकने लगती। जब –तब स्वाति के सामने सरिया का चेहरा घूमता रहता ।    

 वह ज्यादा दिन घूँघट जैसे दानव की गिरफ्त में न रह सकी। किसी की भी  सांसें दम तोड़े ,उससे पहले ही उसने दृढ़ता की शलाका अपने हाथों में थाम ली और पर्दे जैसी कुप्रथा को रौंदती ग्रामीण महिलाओं के संसार में रच बस गई । 

समाप्त 

 

      

 

                

 

 

 

रविवार, 30 मई 2021

13-पूछो तो सच

 

 मेरा शिक्षक दिवस


2020 

एक आश्चर्य 

    साथियों कल  शिक्षक दिवस खूब उमंग उत्साह से मनाया होगा । हमारे साथ भी कुछ ऐसा  ही हुआ। सुबह से ही मुबारकबाद के वाट्सएप पर मैसेज आने लगे । बहुतों ने तो एक शब्द  टाइप करने की भी जिल्लत न उठाई और दूसरों से मिले  रगबिरंगे  कार्ड से चिपके  संदेश हमारी ओर धकेल दिये। न किसी के बोल सुने न हम ही किसी से दो बोल बोले। न कोई हमारे यहाँ आया न हम जाकर किसी के गले लगे। गुरू –शिष्य का नाता  धूमिल सा नजर आया। संध्या होते होते जब सारे दिन पर नजर डाली तो टीचर्स डे आधा –अधूरा सा लगने लगा। 

    रात के करीब 10 बजे बत्ती बुझाकर लेटी ही थी कि घंटी बज उठी। इतनी रात गए किसका फोन! हड़बड़ा कर मोबाइल कान से लगाया-

"कौन?"

"अम्मा मैं इनिका, मैं आपके पास आ रही हूँ।"

"इतनी रात में! कल आ जाना।"

"नहीं अम्मा मुझे अभी आना है।"

"अच्छा बेटा आ जाओ,पर अकेले न आना ।"

'ठीक है मैं मम्मी के साथ आ जाऊँगी।'

   इनिका मेरी  सबसे छोटी पोती है। कक्षा 9 में पढ़ती हैं। उसके इंतजार में दरवाजे के पास कुर्सी पर बैठ गई और सोचने लगी –ऐसा क्या काम पड़ गया जो वह आ रही है। दरवाजे पर दस्तक पड़ते ही चटकनी खोली । इनिका और उसकी बड़ी बहन अवनि जो कक्षा 11 की छात्रा है बड़े स्नेह से मेरे लिपट गई और बोली –"अम्मा Happy Teachers Day। मैं खुशी से पागल हो गई। सारे दिन के शिकोशिकवा गलकर पल में बह गए। दूसरे पल ही ऐसा चमत्कार हुआ कि मैं अभिभूत होकर रह गई। मेज पर एक छोटी सी प्यारी सी चॉकलेट केक रखी थी ।मेरी प्रश्न भरी  नजर उठी तो अवनि बोली-"अम्मा यह केक इनिका ने आपके लिए अपने आप  बनाया है। मैंने इनिका को गले से लगा लिया। एक छोटी सी बच्ची के दिमाग में इतनी बड़ी बात ! जो बड़ों -बड़ों से न टकराई।  वह मिठास भरी आवाज में बोली-"अम्मा अब आप फटाफट केक काटो।हम फोटो खींचेंगे।"

    फिर क्या था केक काटी ,मिलमिलकर खाई । हैपी टीचर्स डे की गूंज से रात भी उजास से भर उठी। खुशी के अतिरेक से रात भर न सो सकी। आज कुछ शिक्षक मित्रो को मैंने अपना सुखद अनुभव सुनाया और केक से मुंह मीठा कराके अपनी खुशी का इजहार किया। तो कैसा रहा मेरा शिक्षक दिवस उत्सव!

 

 

मंगलवार, 11 मई 2021

12 -पूछो तो सच

 

 जीवन के सफर में

वर्ष 80  का  प्रवेश द्वार ( 8/3/2021 )



       वर्ष 80 का प्रवेश द्वार मेरे लिए बड़ा रोमांचक अकल्पनीय और सुखद आश्चर्य से भरा सिद्ध हुआ। जिसके कारण कोरोना से तप्त संतप्त हृदय कुछ समय के लिए हरहरा उठे । 

      बड़े बेटे ने कहना शुरू कर दिया था -माँ मार्च तक मेरा घर बन कर तैयार हो जाएगा । बस फिर आपको यहाँ  आना है।  मैंने सोचा उसने इतने शौक से घर बनवाया है। अब वह चाहता है सबसे पहले उसकी माँ घर में प्रवेश करे। स्वाभाविक भी है। 

पहली मार्च से ही उसका फोन आने लगा -"माँ तैयारी कर ली ।"  "काहे की?"

 "मेरे पास आने की।" 

 "अरे तेरे घर आने को क्या तैयारी करूँ!" 

 "तब भी अच्छी -अच्छी ड्रेस रख लो । "

 "बेटा इस कोरोना में  कहीं आना -जाना तो है नहीं। फिर अच्छी ड्रेस का क्या होगा ?" 

 "तब भी रख लो।" 

      मुझे बड़ा अजीब लगा। मैंने बहू को फोन किया -"ऐसे समय में तुम्हारी कहीं पार्टी -वार्टी तो नहीं है। मैं तो एकदम नहीं जाऊँगी।" 

"मम्मी जी कोई पार्टी नहीं है।" 

"तब बेटा क्यों बोल रहा था -अच्छी अच्छी ड्रेस लेकर आना।" 

"आप तो जानती ही हैं घूमते -घूमते ही लोग मिल जाते हैं , सब तो अच्छे -अच्छे कपड़े पहने रहते हैं। फिर आपको तो सब जानते ही हैं। कोई मिलने भी तो घर में आ सकता है।" 

असन्तुष्ट सी मैं चुप हो गई। 

    छोटा बेटा मेरे एपार्टमेंट में ही रहता है। उससे तो रोज ही मिलना ,खाना -पीना चलता रहता है। एक रात घूमता हुआ आया। मेरी  ओर गौर से देखा और हाथ में हाथ लेता बड़ी आत्मीयता से बोला -"माँ किसी चीज की जरूरत तो नहीं।" 

"न --न मुझे कुछ जरूरत नहीं। जब जरूरत होती है तब तो बोल ही देती हूँ। हाँ मेरा आई पैड बड़ा स्लो हो गया है । मैंने तेरे भाई  से कहा था नया खरीदने को।  उसने कोशिश भी की पर क्रोमो शॉप पर था ही नहीं। हो जाएगा उसका भी इंतजाम । मुझे ऐसी कोई जल्दी नहीं।" 

न जाने क्यों उस दिन उसका पूछना -'माँ किसी चीज की जरूरत तो नहीं।' बड़ा अजीब सा लगा। 

      4मार्च को बड़े बेटे का फिर फोन आया -'माँ मैं कल आपको लेने आ रहा हूँ। तैयार  रहना ।'मैंने चार कपड़े रखे कि 2-3 दिन बाद तो आ ही जाऊँगी । रात को सोने ही जा रही थी कि कानपुर से बेटी का फोन आ गया -"माँ जरा दिखाओ तो अटैची में क्या क्या रखा है?" 

    मैंने कपड़ों के बारे में बताया तो बोली -'यह सब नहीं चलेगा । फेस टाइम पर आ जाओ। अपनी अलमारी खोलकर  मुझे दिखाओं।"

    राजधानी की तरह छूक छूक बोलते बता दिया --ये रखो ये रखो ... । और हाँ मैचिंग पर्स और चप्पल भी रख लेना। सोचने के लिए बहुत कुछ छोड़कर वह मजे से सो गई होगी। करीब चार  सूट और दो साड़ियाँ ! मेरा दिमाग भनना गया । दिखाते- दिखाते मेरी  सारी अलमारी अस्तव्यस्त हो गयी । मैं बड़बड़ाती रह गई पर  बेटी की बात को टाल भी न सकी। लगता था बेटे के नहीं किसी शादी में जा रही हूँ।जैसे- तैसे सब सामान जगह पर रखा और थककर सो गई।                   

    दूसरे दिन  अलसाए भाव से मैंने  अटैची लगाई । अपना लैपटॉप ,आई पैड बैग में रख बड़े बेटे -बहू का इंतजार करने लगी। वह मेरे फ्लैट से करीब 10 किलोमीटर पर रहता है। मन में आया भी कि छोटे बेटे को कह  दूँ -वह भी वहाँ आ जाए। फिर सोचा -3-4 दिन बड़े के पास रहने का प्रोग्राम बना कर जा रही हूँ। छोटा भी एक दिन जरूर आकर मिलेगा। फिर उसी के साथ वापस आ जाऊँगी। 

     5मार्च की सुबह मैं बड़े बेटे के घर आ गई।  घर काफी अच्छे से सजाकर रखा था । मेरे तबियत खुश हो गई। कमरों में नई चादरें ,नई क्रॉकरी,,सजावटी चीजों पर धूल का एक कण नहीं।  । बातों  ही बातों में बहू ने बताया "कल सुबह लंच पर सोनू भैया जी शिल्पी और बच्चे भी आएंगे। मुझे बड़ी सुबह ही एक काम से जाना है।" 

"कहाँ ?ऐसा क्या जरूरी काम आन पड़ा कि सुबह  ही निकल जाओगी। सोना को भी लंच पर बुलाया है। कैसे काम होगा।" मैं तुनक पड़ी। 

"आप चिंता न करो माँ सब हो जाएगा।" बेटे की बात पर मैं चुप हो गई। पर मन ही मन कुढ़ रही थी -'कल  ही का  दिन जाने को मिला  । काम टाला भी तो जा सकता था।' 

     बहू अगले दिन सुबह ही निकल गई। मैंने 9 बजे तक उसका इंतजार किया फिर बोली -"बेटा लगता है रचना को लौटने में देरी होगी मैं तो नाश्ता कर लेती हूँ।" बाहर झाँकते बोला -"माँ थोड़ा इंतजार कर लो । आती ही होगी। अनिच्छा से रसोई में ही छोटी मेज के सामने रखी कुर्सी पर  बैठ गई। समय काटने को मीनाक्षी अपनी  सहेली को  फोन  लगा बैठी। तभी मुझे आभास हुआ कोई मुझे पुकार रहा है। मैंने समझा बहू की सहेली है। वह अक्सर आती रहती है। तभी दुबारा आवाज आई माँ --मां । मैंने सिर उठाया रसोई के दरवाजे पर मास्क लगाए बेटी से मिलती जुलती एक  युवती को खड़े देखा। मास्क के कारण पहचान न पा रही थी। बेटी के होने की तो कल्पना ही नहीं कर सकती थी। क्योंकि एक घंटे पहले ही मेरी  उससे बातें हुई थीं -"माँ कानपुर से तुम्हारे पास कब आऊँ?होली से पहले या बाद में ।" 

"बेटा होली के बाद ही आना । तब तक दूसरा वैक्सीन लगे तुम्हें 15 दिन  हो जाएँगे। तुमने ही तो कहा था इम्यूनिटी के लिए 15 दिन इंतजार करना पड़ेगा।" 

"पर माँ होली के तो अभी कई दिन है।" 

"हाँ  यह तो है। पर क्या किया जाए। मजबूरी है।" 

फोन कट गया। 

   मैं बड़ी उलझन में पड़ी हुई थी। जिसने कानपुर से कुछ देर पहले मुझसे बातें की हैं वह मेरे सामने कैसे हो सकती है। सामने खड़ी होने वाली को किसी तरह भी  मेरा मन बेटी मानने को तैयार न था जिससे मिलने को तड़पती रहती हूँ।  जिसकी सुरक्षा की दिन रात कामना करती हूँ । डॉक्टर होने के नाते उसे तो रोज हॉस्पिटल जाना ही पड़ता है।  

        मेरी  मनोस्थिति वह ताड़ गई। वह हंसी --वही जानी पहचानी हंसी मैंने सुनी पर हिली नहीं। वह  मुझे झंझोड़ते बोली -"माँ मैं हूँ तुम्हारी पिंकी।" तब भी मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। वह मेरे  नजदीक सिमट  आई। मैंने उसके हाथों को अपने हाथों में लिया । छू कर विश्वास करना चाहा कि मेरे सामने मेरी बेटी ही है या कोई सपना देख रही हूँ। आश्वस्त होने पर मैंने उसके दोनों हाथ थाम  लिए । चूमे और आँखों से लगा लिए। खुशी के अतिरेक से बच्ची की तरह सिसक पड़ी और गिरने लगे टप -टप आँसू वह भी बेटी की हथेली पर। 'आह मेरे बेटी !अब कुछ दिन मेरे पास रहेगी।' इसकी तसल्ली होते ही मुझे इतनी खुशी मिली इतनी खुशी मिली थी कि उसको बयान करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं। 

     हाँ, अब मेरी आंखेँ और दिमाग तेजी से कम करने लगे। बेटी के पीछे मेरी नातिन भी खड़ी थी। उसके आने की तो सोच ही नहीं सकती थी। कोरोना के कारण लॉ कालिज बंद है। ऑनलाइन पढ़ाई हो रही है । इसी कारण वह अपनी नानी से मिलने आ सकी। मैं उसे देख फूली न समाई।  उसे प्यार से गले लगा लिया।  बेटा भी कनखियों से माँ-बेटी के मिलन को 3गज की दूरी से देख रहा था। मुझे एक साथ असीमित खुशी मिली यह देख उसकी आँखें मुस्कुरा रही थीं।  तब तक न जाने कब -कब में बड़ी बहू ने आकर वीडियो लेना शुरू कर दिया था।  उसने फॅमिली ग्रुप वाट्एप पर पोस्ट भी कर दिया।मैंने  वीडियो  देखा - उफ कैसी  सुबकती रोती हैरान सी । झट से मैंने आँसू कसकर पोंछ लिए। असल में सुबह बड़ी बहू बेटी को लेने एयरपोर्ट ही गई थी। मुझ बुद्धू को असलियत का जरा भी आभास न हुआ। 

   तभी छोटे बेटे ने घर में प्रवेश किया -"माँ हमने आपका जन्मदिन आज से ही मनाना शुरू कर दिया है । कैसी रही शुरुआत!लो अपना गिफ्ट । अरे जल्दी से खोलो । अच्छा मैं ही खोल देता हूँ। " 

"अरे नहीं हम तीनों मिलकर देंगे।" पीछे से बेटी चिल्लाई। कुछ ही पलों में एपल का नया आइ पैड मेरे हाथ में था। तब मुझे मालूम पड़ा क्यों उस दिन सोना ने पूछा था -माँ किसी चीज की जरूरत तो नहीं। 

    अंग अंग से मेरे खुशी टपकने लगी । पुलकित हो यही कहते बना -"तुम शैतानों की टोली --तुम क्या क्या प्लान बना डालते हो मुझे कानोंकान खबर नहीं होती । लेकिन तुम्हारे दिये एक के बाद एक आश्चर्य जब अपने दोस्तों को सुनाती हूँ तो वे भी आश्चर्य में पड़ जाते हैं।"

"अरे माँ अभी तो देखती जाओ ,आगे होता है क्या क्या।" 

"क्या मतलब?" 

"मतलब यह कि कल 7--फिर  8मार्च-- । आपका जन्मदिन मनाते ही रहेंगे ।" छोटा बोला।  

"अब तो मम्मी जी को बता दीजिये।क्यों उन्हें परेशान करते हैं!" छोटी बहू बोली । 

"क्या बता दूँ कुछ बताने को है ही नहीं।उसने नटखटपने से कहा।" 

"उफ! अच्छा मैं बताती हूँ।7- 8मार्च को हम सब मेरियट होटल में रहेंगे।आप  एक अटैची वहाँ के लिए लगा लीजिये।"  

"ओहो ,इसलिए साड़ी -सूट लाने को कहा जा रहा था। तुम लोगों को मेरा इतना ख्याल!" अनायास ममता हिलोरें लेने लगी।   साथ ही  मन का एक कोना फीका- फीका सा बोल पड़ा -"बेटा कोरोना के समय होटल !"

"कोई भीड़ नहीं हैं । अगर कुछ गड़बड़ देखेंगे तो चले आएंगे।वैसे होटल में बहुत सावधानी से कोरोना के नियमों का पालन किया जा रहा है।"

 दिल को तसल्ली तो हुई पर मुझे पहले पता होता तो साफ मना कर देती। 

     उम्र का  सफर  तय करते हुये 80 में प्रवेश करने वाली थी।  दो दिन मास्क और दूरी का ध्यान रखते हुये  आशा के विपरीत रिश्तों को महकने का मौका मिला। कोरोना के कारण जो कदम एक दम रुक गए थे  उनको गति मिली। दिल के तारों को कैमरे में कैद करने की निराली कोशिश थी । हंसी मज़ाक ,बेफिक्री के चंद घंटों ने  न  जाने कितनी उम्र बढ़ा दी । 

     अप्रैल में ही फिर कोरोना का मिजाज गरम हो गया और हम घर में बंद से ही हैं । पर मार्च की यादों ने अपनी खुशबू नहीं छोड़ी है। रहरह कर उसका झोंका आता है और हम उसमें डूब से जाते हैं।