अंतर्जाल पत्रिका अनहदकृति में प्रकाशित
http://www.anhadkriti.com/sudha-bhargava-story-bhoori-maa
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भूरी माँ
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जानवर के अगाध स्नेह के आगे आज का सभ्य मानव मूक
नैपाली कक्षा चार में पढ़ता था। माँ दांतों की डॉक्टर और बाप दिल का पर न
उसके दाँत ठीक थे और न दिल ही खुश था। स्कूल से आकर वह नौकरानी के पास रहता।
रविवार को भी उसकी माँ और पापा घर में नहीं होते थे। फिर तो छुट्टी का दिन उसे
पहाड़ लगने लगता। आया घर का काम निपटा कर सोने की ताक में रहती। अकेलेपन से उसका
जी घबराता और बुरे विचार उसे बेचैन किए रहते –यदि मैं गिर गया तो कौन
उठाएगा, मुझे बुखार चढ़ गया तो दवा-दारू कौन करेगा।
दोस्तों को फ़ोन करता तो वे एक मिनट बातें करते, फिर धम से
रिसीवर नीचे रख देते। वे अपने भाई–बहनों मे मस्त। माँ की
उसे याद सताती पर डायल करते–करते उँगलियाँ थम-सी जाती–उन्होंने कह रखा था कम से कम फ़ोन करना क्योंकि मरीज़ों को देखते समय
उनका दिमाग़ बँटता है। सारे दिन फ़्रिज में रखे टॉफ़ी–चाकलेट
खाने से उसके दाँत गड़बड़ा गए। घर में कोई समझाने
वाला तो था नहीं जो मन में आता करता। यहाँ तक कि घर की चारदीवारी में इंसान
कीआवाज़ सुनने को उस बालक के कान तरस जाते। मन को समझाने के लिए दूरदर्शन के
चैनल बदलता रहता, कब नींद ने उसे थपकी देकर सुला दिया पता
नहीं, पर टी वी चलता रहता।
ठंड से उसके पैर पेट से जा लगते मगर चादर ओढ़ाने वाली
नौकरानी पहले से ही व्यस्तता का बहाना बना कर अपना पीछा छुड़ा लेती।
शाम के पाँच बजते ही वह पास के पार्क में घूमने निकल जाता। दोस्त तो संध्या घिरते ही अपने–अपने घरों का रास्ता नापते पर वह लावारिस-सा घूमता रहता। थक कर पेड़ के नीचे बैठा माँ का इंतज़ार करता। ज्यों-ज्यों अंधेरा होता, उसके अंदर का अंधेरा बढ़ता जाता। एक दिन माँ के आने पर चुपचाप वह उसके पीछे घर में दाख़िल हुआ । - नैपी,तुम अकेले इतनी देर तक बाहर क्यों थे? रामकली तुमने इसे क्यों नहीं बुलाया? - मेमसाहब। बाबा रोने लगते हैं। उन्हें देखकर हमारा कलेजा फटने लगता है। बाहर रहते हैं तो पेड़–पौधों को ही देखकर मन बहलाते रहते हैं। - न जाने क्यों यह भूत की तरह मुंह लटकाए रहता है। इसे मैंने क्या नहीं दिया। अभी नया मोबाइल दिया। खूब गाने सुनो, पिक्चर खींचो–कौन रोकता है! कल ही नए जूते–टी शर्ट लेकर आई हूँ। - रोहिणी नाराज होने की बात नहीं। वह तुम्हारा साथ चाहता है। शांत भाव से घर में प्रवेश करते हुए नैपाली के पापा बोले। - तब क्या मैं अस्पताल जाना बंद कर दूँ। आप क्यों नहीं अपनी प्रेक्टिस बंद करके उसकी देख-रेख करते। - मैं तब भी माँ की कमी पूरी नहीं कर पाऊँगा। माँ, माँ ही होती है। - मैं अपना कैरियर बर्बाद नहीं कर सकती। - मैं तो केवल यह चाहता हूँ कि उसे थोड़ा समय दो और बेटा होने के नाते उसका अधिकार बनता है। बच्चे को जन्म देने से पहले तुम्हें सोच लेना चाहिए था कि उसके प्रति तुम्हारा कर्तव्य भी है, उसे निभा पाओगी या नहीं। पति की तर्कसंगत बात से रोहिणी चुप हो गई। माँ–बाप के बीच गरमागर्मी होने पर नैपाली अख़बार लेकर बैठ गया। हठात बोला –माँ देखो न, इसमें लिखा है–बिल्ली ने एक छोटे बच्चे की जान बचाई। मुझे भी एक बिल्ली का बच्चा ला दो। आप लोगों के पीछे से यदि मुझे कुछ हो गया तो वह बचा लेगी। उसके मन का भय उसकी ज़बान पर आ गया। उसमें पनपती असुरक्षा की भावना को महसूस कर रोहिणी भी हिल गई। दूसरे दिन वह क्लीनिक से लौटते समय सफ़ेद बालों वाला बिल्ली का प्यारा-सा बच्चा उठा लाई। भूरी–भूरी आँखें, रेशम से बाल, नैपाली तो उसकी झलक पाते ही उछल पड़ा। अपने हाथों से बड़ी सावधानी से ऐसे उठाया जैसे माँ नवजात शिशु को उठाती है। उसका चुंबन ले सीने से लगा लिया। वह सोचने लगा–मेरी तरह यह भी अपनी माँ को याद करेगा पर मैं इसे इतना प्यार दूंगा कि माँ की कमी खलेगी ही नहीं। नैपी बिल्ली के बच्चे को भूरी ही कहता। वह उससे इस तरह हिल-मिल गई थी मानो उसकी दुनिया नैपी ही हो। स्कूल जाते समय वह बड़े रौब से कहता–रामकली! घर का काम हो न हो पर भूरी का पूरा ध्यान रखना। वह भी उसकी बात न टालती। उसे नैपी से पूरी सहानुभूति थी। उसे लगता –नैपी के माँ–बाप नोट छापने की मशीन बन कर रह गए हैं। एक छोटे से जीव ने नैपी की दिनचर्या ही बदल दी। अंधेरे गए बाहर तक घूमने पर तो उसने ताला लगा दिया। शाम को भूरी को घुमाता, मैदान में दौड़ाता और उसमें अच्छी आदतें डालने की कोशिश में रहता। भूरी दूध–रोटी खाती तो वह भी खाने बैठ जाता। भूरी के रूप में उसे एक साथी मिल गया जिसकी उसे परवाह थी और भूरी को नैपी की। एक मिनट को वह उसकी आँखों से ओझल हो जाता तो म्याऊँ –म्याऊँ करती पूरे घर में ढूंढ आती। एक बार रामकली कुछ दिनों को अपने गाँव गई। पीछे से नैपी को वायरस फ़ीवर हो गया। अस्पताल जाने से पहले उसकी माँ ने दवाइयों का लिफ़ाफ़ा बेटे के सिरहाने रख दिया और कहा –ठीक से दवा लेते रहना। कोई बात हो तो मुझे फ़ोन कर देना। पड़ोसी आंटी को घर की चाबी दिये जा रही हूँ। वे आकर तुम्हारा हाल–चाल पूछ जाएंगी। माँ से रुकने के लिए कहना बेकार था। वह अनमना-सा उनके आदेश सुनता रहा। दोपहर होते–होते उसका बुख़ार बढ़ने लगा। ज्वर के ताप से वह बड़बड़ाने लगा–भूरी मुझे बचा लो --भूरी अपना नाम सुनकर चौंक गई। अपने साथी के सिरहाने बैठकर उसने धीरे से पंजा उठाया और उसका सिर सहलाने लगी। बुख़ार की गर्मी का शायद उसको अनुमान लग गया था। वह रसोई के वाशबेसिन पर चढ़ गई। पंजे से नल की टोंटी घुमाई और बहते पानी के नीचे अपना सिर रख दिया। जब उसके बाल अच्छी तरह भीग गए, एक छलांग में अपने छोटे मालिक के पास आन बैठी। उसके माथे पर झुककर उसने अपना सिर हिलाया। झरझरा कर उसके बालों से ठंडे पानी की बूंदे नैपी के चेहरे पर गिरने लगीं। उसको ठंडक महसूस हुई और आँखें खोल दी लेकिन फिर से उस पर बेहोशी छाने लगी। भूरी घबरा कर इधर–उधर चक्कर काटने लगी। कुछ मिनटों की कसरत के बाद वह दूसरी मंजिल की खिड़की से पाइप के सहारे नीचे कूद गई। पड़ोसिन आंटी का दरवाज़ा भड़भड़ करने लगी। वह यहाँ कई बार नैपी के साथ आ चुकी थी। आंटी भूरी को देखकर चौंक गईं। भूरी उनके कदमों में लोटकर बाहर जाने की ओर इशारा करने लगी। आंटी अनहोनी की आशंका से काँप उठी। उन्होंने नैपी के घर की चाबी उठाई और भूरी के पीछे चल दीं। दरवाजा खोलते ही आंटी से पहले भूरी घर में घुस गई। नैपाली के सिरहाने दो पैरों से खड़े होकर वह अजीब-सी आवाज़ निकालने लगी। आँखों की चमक से लगता था वह बहुत खुश है और उसे पूरा भरोसा है कि उसके साथी को कष्ट से जल्दी ही छुटकारा मिल जाएगा। आंटी ने नैपाली के माथे पर हाथ रखा। वह तवे की तरह जल रहा था। उन्होंने उसे दवा देकर रोहिणी को फ़ोन किया–तुम तुरंत चली आओ। बेटे की तबियत ठीक नहीं। भूरी के कारण आता संकट टल गया। आंटी ने ठंडे पानी की पट्टियाँ नैपी के माथे पर रखनी शुरू कर दी और भूरी! उसको किसी तरह चैन नहीं मिल रहा था। वह बार–बार दरवाज़े तक जाती, एक–दो बार उचककर बाहर झाँकती फिर निराश-सी म्याऊँ कहकर लौट आती। उसे शायद रोहिणी के आने का इंतज़ार था। रोहिणी को आने में आधा घंटा लग गया। बदहवास-सी बेटे के पास आकर खड़ी हो गई। वह अपने बेटे की ओर एकटक देखे जा रही थी और अपने को अपराधी महसूस कर रही थी। तभी नैपी की आँखें खुलीं, उसने कमज़ोर-सी आवाज़ में पुकारा---भूरी–भूरी। भूरी फुदककर अपने साथी के पास बैठ गई और उसका हाथ अपने पंजे में लेकर चाटने लगी । जो कर्तव्य माँ का था वह भूरी-माँ बनी निभा रही थी। जानवर के अगाध स्नेह के आगे आज का सभ्य मानव मूक था। रोहिणी के मुख से केवल इतना निकला–बेटा, मुझे माफ़ कर दे ।
सुधा भार्गव
बैंगलोर
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आपकी इस कहानी ने मुझे अन्दर तक झकझोर दिया है बहुत ही मार्मिक है.आदमी से ज्यादा जानवर वफादार होता है जिसे कई बार मैंने भी महसूस किया है.इतनी खुबसूरत कहानी के लिए बधाई देता हूँ.उम्मीद करता हूँ कि इस कहानी को बच्चे भी पसंद करेंगे.ऐसा मेरा विशवास है.
जवाब देंहटाएंआपकी अनमोल टिप्पणी पढ़ी और मैं आत्मविश्वास से भर उठी। आभार।
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