मेरी कहानियाँ

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आर्टिस्ट -सुधा भार्गव ,बिना आर्टिस्ट से पूछे इस चित्र का उपयोग अकानून है।

शुक्रवार, 17 जुलाई 2020

पूछो तो सच-1


एक ड्रेस की दुल्हनिया 

सुधा भार्गव   
   शादी तो मैंने अपने बच्चों की भी की और अनेक शादियाँ देखने को मिलीं पर  उस जैसी शादी नहीं देखी।
   न मिठाइयों के पैकिट न उपहारों की भीड़। न तिलक के नाम नोटों से भरे लिफाफों  की बौछार न लड़के की घड़ी-सूट-चेन । सगाई की रस्म बड़े शानदार होटल में की गई थी। मगर लड़की के माँ-बाप ऐसे घूम रहे थे जैसे किसी दूसरे रिश्तेदार की सगाई में  आए हैं। उनकी तरफ के लोग सगाई के अवसर पर करने वाले तिलक के लिफाफे हाथ में  लिए हुए थे। लड़की की माँ ने टोका-“ये लिफाफे अंदर रख लीजिये। लड़के वालों ने कुछ भी लेने से इंकार कर दिया है। लड़के का सपना था  कि वह केवल एक ड्रेस में  अपनी दुलहनिया लाएगा। ”
   जिसने भी सुना अचंभित !पैसे के लालच से निकलना आसान नहीं। मैं असमंजस में थी—सगाई पर अगर लड़के के माता –पिता लड़की के लिए साड़ी - जेवर लाये, साथ में मेवा-मिठाई ----- लड़की वाले कुछ न दें तो बड़ी किरकिरी होगी।
    मैं लड़की वालों की तरफ से थी। हम सब होटल में आ चुके थे। लड़के वालों का इंतजार था। वे दूसरे शहर से आने वाले थे। सबकी आँखें दरवाजे पर लगी थीं। वे इसी होटल में रुके मगर अपने रहने -सहने का इंतजाम उन्होंने खुद किया ।  सगाई में सबके खान पान का खर्चा भी उनकी तरफ से था।
  जो भी देखा अविश्वसनीय । वे बस 10 लोग थे। कोई चमक-दमक ,ठसके बाजी नहीं। न साथ में भारी अटैचियाँ  और डिब्बे। तभी लड़की ने साधारण   वेषभूषा में अपनी भाभी के साथ हॉल में प्रवेश किया।  मंच पर लड़के –लड़की ने एक दूसरे को अंगूठी पहना दी  वह भी अपनी अपनी कमाई की। फिर नाच-गाने व शायरी  के प्रोग्राम अति व्यवस्थित रूप से हुए। जो उनके मित्रों ने संयोजित किए थे।
    हम आशा करते रहे , रोके की रस्म  में अब लड़के की माँ अपनी होने वाली वधू को साड़ी -जेवर पहनाए ---अब पहनाए मगर वह क्षण नहीं आया तो नहीं। एक बुजुर्ग महिला बेचैन हो उठी और उसने समधिन जी से पूछ ही लिया –“बहन जी रोके की रस्म कब करेंगी ?हम लोगों में तो रोका होता है। जिसमें ससुराल की तरफ से सौभाग्य सौगातें दी जाती हैं।”
     “अगर हम देने का सिलसिला शुरू कर दें तो लड़की वाले भी शुरू कर देंगे। हम इस लेनदेन के खिलाफ हैं। रही बहू को देने की बात तो उसे हम क्या दें! वह  हमारी हो गई है ,फिर तो हमारा सब कुछ उसी का है। फिर  मेरा बेटा भी तो अपनी दुलहनिया को एक ड्रेस में ले जाना चाहता है।”
बात खरी थी । सब अपने गिरहबान में झाँककर देखने लगे कौन कितना खरा है। चाहते हुये भी लोग परम्पराओं और रीति-रिवाजों का विरोध करने में अपने को असमर्थ पा रहे थे।
अगले दिन विवाह समारोह था। उस दिन होटल के खाने –पीने का प्रबंध लड़की वालों की तरफ से था। बारात आई ,उसका स्वागत हृदय से किया। परंपरा के अनुसार लड़की के पिता ने बड़ी नम्रता से अपने समधिन जी से कहा-आप हमारे मेहमान हैं। हमारी ओर से आपके खास मेहमानों के लिए कुछ उपहार हैं। वे आपको दे दें  या उन्हीं को दें।
   समधी जी बिफर पड़े-“किस बात के उपहार !ये सब लड़की वालों को लूटने की बातें हैं। आप बताइये ,हमारे पास किसी  बात की कमी है क्या जो आपसे लें? मेरे बेटे-बहू दोनों ही योग्यता में  समान हैं ,सामर्थ्यवान हैं । उन्होंने एक दूसरे को पसंद किया है फिर हम उनके चक्कर में  क्यों पड़ें!” वे अपनी बात कहते हुये बड़ी सहजता से हंस दिये। समधी-समधी पुलकित हो गले लग गए। देखने वाले कह उठे- हमारे समाज में यह एक अनूठी मिसाल है।
13:1:2019
बैंगलोर          मित्रों मेरे जीवन का एक सच पढ़िए 





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